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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विभुः पुमानमूर्तत्वे सति नित्यत्वतः खवत् । इत्यादि हेतवोप्येवं प्रत्यक्षहतगोचराः ॥ ४॥
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फिर वैशेषिक पंडित अनुमान करते है कि आत्मा (पक्ष) व्यापक है (साध्य ) पृथिवी, जल, तेज, वायु, और मन इन पांच मूर्तीसे भिन्न होते सन्ते नित्य होनेसे ( हेतु ) आकाशके समान (अन्वयदृष्टान्त ) तथा आत्मा व्यापक है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि अणुपरिमाणका अधिकरण नहीं हो रहा सन्ता नित्यद्रव्य है ( हेतु ), जैसे कि आकाश व्यापक है ( दृष्टांत ) । अथवा देवदत्तकी अंगनाका शरीर या देवदत्तके सैकडों हजारों कोस दूर बन रहे वस्त्र, अलंकार, कांटे, विष, अंगूर, सेव, आदिक पदार्थ ( पक्ष ) संयुक्त हो रहे देवदत्तकी आत्माके गुणोंद्वारा सम्पादित किये जाते हैं ( साध्य ) क्योंकि कार्य होते हुये वे उस देवदत्तके उपकारक हैं ( हेतु ) जैसे कि कौर, गायन, अध्ययन, आदिक हैं । इस अनुमानसे भी आत्मा के व्यापक सिद्ध हो जानेपर ही देशान्तरवर्त्ती भोग्य, उपभोग्य पदार्थोंसे संयुक्त होकर क्रिया कराना बन पाता है । तथा पुण्य पाप ( पक्ष ) अपने आश्रय आत्मा साथ संयुक्त ( समवेत ) हो रहे सन्ते ही दूसरे आश्रयोंमें क्रियाका आरम्भ करते हैं ( साध्य ), क्योंकि एक द्रव्यके गुण होते हुये वे क्रियाके हेतुभूत गुण हैं ( हेतु ), प्रयत्न के समान अन्वय दृष्टांत ) । एवं आत्मा ( पक्ष ) सर्वव्यापक है ( साध्य ), सर्वत्र जाने जा रहे गुणों का आधार होनेसे ( हेतु ) आकाशके समान ( दृष्टांत ) तथा बुद्धिका अधिकरण हो रहा आत्मा द्रव्य व्यापक है ( साध्य ), क्योंकि नित्य होते हुये अस्मदादिको के द्वारा जानने योग्य गुणोंका अधिष्ठान होने ( हेतु ) आकाशके समान ( अन्वयदृष्टांत ) और भी आत्मा सर्वगत है ( प्रतिज्ञा ), द्रव्य होते हुए अमूर्त होनेसे ( हेतु ) आकाश के समान । अन्य भी अनुमान लीजिये । आत्मा व्यापक है ( प्रतिज्ञा ) मनसे भिन्न होता हुआ स्पर्शरहित द्रव्य होने से (हेतु) आकाशके समान । अब आचार्य कहते हैं कि आत्माको व्यापकत्व सिद्ध करनेमें दिये गये इसी प्रकार अमूर्त होते हुये नित्यपना आदिक हेतु तो प्रत्यक्षबाधित साध्यको विषय कर चुकनेपर प्रयुक्त हो रहे हैं । अतः बाधित हेत्वाभास हैं । जब कि रासनप्रत्यक्ष से मिश्रीका मीठापन प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा गृहीत हो रहा है, ऐसी दशामें दो चार तो क्या सहस्रों हेतु भी मिश्रीको कटु सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं हैं । उसी प्रकार शरीर में ही आत्माका स्वसम्वेदन हो रहा है । अतः आत्माक ब्यापकत्वको साधनेवाले सभी हेतु अकिंचित्कर हैं । तथा आत्मा (पक्ष) परममहा परिमाणवान् नहीं है (साध्य) क्योंकि द्रव्यांतरोसे उस साधारण हो रहे सामान्यका आधार हो रहा सन्ता अनेक हैं ( हेतु) घट,पट, आदिके समान (अन्वयदृष्टांत) तथा आत्मा सर्वगत नहीं है, दिक्, काल, आकाशसे भिन्न होता. हुआ द्रव्य होनेसे पुस्तकके समान । एवं आत्मा विभु नहीं है, क्रियावान् होनेसे बाण आदिके समान । इत्यादिक अनुमानोंसे भी आत्माका व्यापकत्व बिगाड दिया जाता है । तब तो पूर्वोक्त सभ हेत्वाभास हो जाते हैं ।