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________________ १७३ तत्त्वार्थचिन्तामणिः कुतः पुनर्विग्रहगतौ जीवस्य कर्मयोगोस्तीति निश्चीयत इत्याह । फिर यह बताओ कि विग्रहगतिमें जीवके कर्मयोग विद्यमान है, यह किस प्रमाणसे निश्चित किया जाता है ? इस प्रकार प्रश्नस्वरूप बाणके छूटनेपर बालबालकी रक्षा करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामी वज्रकवचरूप समाधान वचनको कहते हैं । तौ तु विग्रहार्थायां कर्मयोगो मतोन्यथा तेन संबंधवैधुर्याद्व्योमवन्निर्वृतात्मवत् ॥ १ ॥ विग्रहके उपार्जन अर्थ हो रही गतिमें तो कर्मयोग प्रेरक कारण माना गया है, अन्यथा यानी कर्मयोग नहीं मानने पर उस समय उन कर्मोंके सम्बन्धसे रीते रह जाने के कारण यह जीव आकाशके समान सर्वथा कर्मशून्य हो जायगा अथवा कर्मयुक्त हो रहा जीव मुक्तजीवोंके समान बन बैठेगा । ऐसी दशामें तो मर जानेपर सभी जीवोंको कर्मरिक्त हो जानेसे मुक्तिलाभ प्राप्त हो जायगा । संसार परिवर्त्तन नहीं हो सकेगा, जोकि किसी भी आस्तिक के यहां अभीष्ट नहीं किया गया है। येषां विग्रहनिमित्तायां गतौ जीवस्य कर्मयोगो नाभिमतस्तेषां तदा पश्चाद्वा नात्मा पूर्वकर्मसंबंधवान्कर्मयोगरहितत्वादाकाशवन्मुक्तात्मवच्च विपर्ययप्रसंगो वा । जन प्रतिवादियों के यहां शरीर के निमित्त हो रही जीवकी गतिमें कर्मयोगको कारण नहीं माना गया है उनके यहां उस समय अथवा पीछे भी आत्मा ( पक्ष ) पूर्व कर्मोंके सम्बन्धवाला नहीं सम्भवता है ( साध्य ) कर्मयोगसे रहित होनेके कारण ( हेतु ) आकाशके समान और मुक्त आत्माके और समान (दो अन्यदृष्टान्त ) पहिला दृष्टान्त तो सर्वथा कर्मो के अत्यन्ताभावको साध रहा दूसरा दृष्टान्त कर्मोंके सद्भावपूर्वक रिक्तता ( ध्वंस) को पुष्ट करता है । अथवा दूसरी बात यह भी है कि विपर्यय हो जाने का भी प्रसंग होगा । अर्थात् — मरते समय कर्मोंसे सर्वथा रीता हो गया आत्मा पुनः जन्मान्तरोंके फलोपयोगी कर्मोंका नवीन ढंगसे यदि उपार्जन कर लेता है तो कर्मों के भूत, वर्तमान, भविष्य, त्रिकाल, संसर्गावच्छिन्न अत्यन्ताभावको धार रहा आकाश अथवा कर्मोंके वर्तमान, भविष्य, कालद्वय संसर्गावच्छिन्न ध्वंसको धार रहा मुक्त आत्मा भी पुनः कर्म लिप्त हो जायगा, जो कि इष्ट नहीं है । आत्मनः परममहत्त्वात् गतिमत्त्वाभावाद्विग्रहगतिरसिद्धा । तथोत्तरशरीरयोग एव पूर्वशरीरवियोग इत्येककालत्वात्तयोनन्तरालमदृष्टयोगरहितं यतो पूर्वकर्मसंबंधभागात्मा न स्यादिति कश्चित् । तं प्रत्याह । यहां कोई वैशेषिक कह रहा है कि विभु द्रव्योंमें पाये जानेवाले परम महत्त्व परिमाणका धारी होनेसे आत्माके गतिमान्पनेका अभाव है । अतः विग्रहके लिये गति करना जीवके असिद्ध है तथा एक बात यह भी है कि उत्तर शरीर के साथ सम्बन्ध हो जाना ही तो पूर्वशरीरका वियोग है । इस प्रकार पूर्वभवकी मृत्यु और उत्तर भवके जन्मका एककाल होनेसे उन दोनोंका अन्तराल तो पूर्ववर्त्ती
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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