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तत्रार्थ श्लोकवार्तिके
सम्पूर्ण शरीरों के प्ररोहका बीजभूत वह ज्ञानावरण आदि अष्टकर्मीका समुदायभूत कार्मण शरीर ही यहां कर्म कहा जाता है । मन वचन कायके उपयोगी वर्गणाओंमेंसे किसी भी एकका निमित्त पाकर हुआ आत्मप्रदेशोंका सकम्पना योग माना जाता है । उत्तरभव सम्बन्धी शरीर के ग्रहण करने के लिये हो रही गतिमें कर्मयोग निमित्त हो जाता है । अर्थात् — उत्तर भवमें जन्म लेनेके लिये आकाश प्रदेश श्रेणियोंमें चले जा रहे जीवके कार्मणयोग हो रहा गतिका सम्पादक है । जगतमें जड पदार्थ बहुत विस्मयजनक कार्यों को कर रहे हैं। चेतनको अनेक वर्षोंतक उनकी शिष्यता प्राप्त करना मानूं आवश्यक हो जाता है | वैज्ञानिक विद्वानोंद्वारा जंडके चमत्कारक कार्यदृष्टि गोचर करा दिये जाते हैं । चेतन तो मूर्ख सरीखा उनके सन्मुख देखता ही रह जाता है । चेतनके भूक, प्यास, शीत, उष्णता, बाधा, रोग आदिको जड ही मेटता है जीवित शरीरमें भी चेतन जीव पोंगा सरीखा खडा रहता है, जिस समय कि शारीरिक प्रकृति अनेक आश्चर्यकारक कार्योंका सम्पादन कर रही है अतः जीवकी शरीरके लिये गतिमें अथवा पुद्गल के आधानके निरोध के साथ हो रही गतिमें कर्मयोग प्रेरक निमित्त हो रहा है।
विग्रहो देहः गतिर्गमनक्रिया विग्रहाय गतिः विग्रहगतिः अश्वघासादिवदत्र वृत्तिः कर्म कार्मणं शरीरं कर्मैव योगः । कार्मणशरीरालंबनात्मपदेशपरिस्पंदरूपा क्रियेत्यर्थः । विग्रहगतौकर्मयोगोस्तीति प्रतिपत्तव्यं, तेन पूर्व शरीरं परित्यज्योत्तरशरीराभिमुखं गच्छतो जीवास्यांतराले कर्मादानसिद्धिः ।
विग्रह शब्द के अर्थ देह, राजनीति सम्बन्धी छह गुणोंमें एक गुण, युद्ध, विस्तार, ये कई हैं। किन्तु यहां सूत्रमें पडे हुये विग्रह शब्दका अर्थ देह पकडना चाहिये गति शब्दके गमन, मुक्ति, ज्ञप्ति, प्राप्ति, अर्थोंमेंसे यहां गमन करना स्वरूप क्रिया अर्थ लेना चाहिये । विग्रहके लिये जो गति होती है वह विग्रहगति होती है । यहां कोई प्रश्न करे कि " रथाय दारुः रथदारुः कटकाय सुवर्ण कटकसुवर्ण ' रथके लिये काठ है, कडेके लिये सोना है, इस प्रकार “ प्रकृतिविकृतिभाव " सम्बन्ध होने पर उसके लिये इस अर्थमें चतुर्थी तत्पुरुष समासवृत्ति हो सकती है । किन्तु यहां तो शरीरको बनानेके लिये गति कोई प्रकृति नहीं है । अतः समास होना कठिन है । इसके लिये प्रथमसे ही आचार्य कह देते हैं कि विग्रद्गतौ यहां “ अश्वघास, छात्रान्न, इत्यादिके समान समासवृत्ति कर लेनी चाहिये, घोडेके लिये
है, विद्यार्थी के लिये अन्न रखा है, यहां प्रकृति विकृति भाव नहीं होते हुये भी तदर्थपनेको कह रही चतुर्थी समासवृत्ति हो जाती है । तथा कर्मका अर्थ आत्मामें प्रवाह रूपसे उपचित हो रहा कार्मण शरीर है । कर्मस्वरूप ही जो योग है वह कर्मयोग है। यानी कार्मण शरीरका अवलम्ब लेकर हुयी आत्मप्रदेश कम्पन स्वरूप क्रिया इस कर्मयोगका अर्थ है, विग्रहके लिये गतिमें कर्मका योग ' है यह समझ लेना चाहिये । तिस कारण पूर्वशरीरको छोडकर उत्तरभव सम्बन्धी शरीर के अभिमुख गमन कर रहे जीवके मध्यवर्ती अन्तरालमें कर्मों के ग्रहण करनेकी सिद्धि हो जाती है । कार्मणकाय योगद्वारा उस समय भी कार्मण वर्गणाओं का आकर्षण होकर जीवके ज्ञानावरणादि कर्म बनते रहते हैं ।