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________________ तत्वार्थ श्लोक वार्तिके मानकर और भावको अन्तरंग निमित्त मानकर जो कर्मोंके फलकी प्राप्ति होना है, वह उदय है 1 जैसे कि द्रव्य, क्षेत्र, आदिका प्रसंग मिल जानेपर आम्र बीज या धान्य बीजसे फल प्राप्ति हो जाती है, यावत् कर्मोंमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भात्रोंको निमित्त माना गया है। बीजके विना वृक्ष नहीं होता है । योग्य खेत के बिना नंगे पत्थरपर आम्र, गेहूं आदि के पेड उगते नहीं हैं । उचित अवसर के बिना अनियत ऋतुओं में वृक्ष, फल, फूल नहीं उपजते हैं । बीज या शाखाओंका उपयोगी परिणाम हुये विना वृक्ष, फल, फूल नहीं आते हैं। अध्ययन, अर्थोपार्जन, काम पुरुषार्थ, देवार्चन, मोक्ष, इन सब कम के लिये द्रव्य आदि चतुष्टय आकांक्षणीय है । इसी प्रकार कर्मों के फल प्राप्त कराने में भी द्रव्य आदि चारों कारण आवश्यक हैं । तथा जिसका हेतु केवल द्रव्यका आत्मलाभ ही हैं, वह अन्य किसीकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले पदार्थका भाव तो परिणाम कहा जायगा । अर्थात्– अनादिकालीन द्रव्यका आत्मलाभ हो रहा ही जिसका हेतु है, जिसके अन्य कोई कर्मो के उदय उपशम आदिक निमित्त नहीं हैं, वह इस प्रकरणमें परिणाम कहा जाता 1 ६ एतत्प्रयोजना भावाः सर्वोपशमिकादयः । इत्यौमशमिकादीनां शब्दानामुपवर्णिता ॥ ५ ॥ निरुक्तिरर्थ सामर्थ्याद्ज्ञ | तुमव्यभिचारिणी । ततोन्यत्राप्रवृत्तत्वात् ज्ञानचारित्रशब्दवत् ॥ ६ ॥ परिणाम ये 64 1 जिन सभी औपशमिक क्षायिक भावों के पूर्वोक्त उपशम, क्षय, क्षयोपशम, उदय, भाव प्रयोजन हैं, वे भाव औपशमिक आदिक हैं । इस प्रकार तदस्य प्रयोजनं " इस अर्थ ठंञ् प्रत्यय कर औपशमिक आदि शब्दोंकी व्याकरण शास्त्र अनुसार निरुक्ति कह दी गयी है । शब्द निष्ठ अर्थकी सामर्थ्य से जानने के लिये निरुक्तिमें कोई व्यभिचार दोष नहीं आता है । क्योंकि धातु, प्रकृति, प्रत्यय, इनके अनुसार बने हुये उस शब्दके यौगिक अर्थसे अतिरिक्त अन्य अर्थोंमें वे शब्द नहीं प्रवर्तते हैं । जैसे कि पहिले सूत्रमें कहे गये ज्ञान और चारित्र शब्दभी निरुक्ति कर देने से ही अव्यभिचारी अभिप्रेत अर्थ प्राप्त हो जाता है । हां, सम्यग्दर्शनका शद्वनिरुक्ति द्वारा अर्थ करनेपर व्यभिचार दोष आता है । तभी तो श्रीउमास्वामी महाराजने सम्यग्दर्शन का अभीष्ट अर्थ करने के लिये न्यारा सूत्र " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं " कहा है और सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रका निरुक्तियोंसे ही अर्थ निकाला है । व्यवहारमें लाखों, करोडों, शह्नोंका प्रयोग होता है । वहांतक सर्व शब्दों के पारिभाषिक अर्थ करते फिरें । बहुभाग यौगिक अर्थोसे ही शद्वों द्वारा वाच्यार्थ की सिद्धि कर ली जाती हैं। जहां निरुक्तिका व्यभिचार होता है, वहां गो, व्याघ्र, कुशल, आदि शद्बों को यौगिक नहीं मानकर रूदि समझ लिया जाता है । अतः उपशमः प्रयोजनमस्य इत्यादि प्रकारसे निरुक्ति कर औपशमिक 1 1 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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