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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः पूर्वक कार्योपयोगी आत्मीय परिणामों के प्रयत्नसे अन्तर्मुहूर्त कालतकके लिये कमौके उदयको टालदेना अन्तरकरण उपशम कहा जाता है और बांधेहुये कर्मोकी फलप्राप्तितक यों ही सत्तामें उनका पडे रहना सदवस्था उपशम है। उपशम करने के लिये भी आत्माको चला कर प्रयत्न करना पडता है, जिससे कि उदीरणाका कारण उपस्थित होकर कर्म उदयमै नहीं आसके । जलमें पडी हुई फिटकिरीको कीचके दबानेके लिये सतत उद्यत रहना पड़ता है। तभी तो चाहे जब जलमें कीच घुलने नहीं पाती है । तीव्र वायुके झकोरों द्वारा या जलपात्रके उथल पुथल कर देनेसे यदि फिटकिरीके उद्यमको व्यर्थ करदिया जाय तो जलमें कीचकी सामर्थ्य प्रकट हो जाती है । उसी प्रकार आत्मामें भी तीव्र उदीरणाके कारण मिल मानेपर आत्माका उपशमार्य किया गया प्रयत्न व्यर्थ होकर कौकी सामर्थ्य प्रकट हो जाती है। जबतक कर्मोकी शक्ति उद्भूत नहीं हुई है तबतक उपशम माना जाता है। औषधियों द्वारा रोगोंका प्रकट नहीं होना प्रसिद्ध है । कर्मोंका उपशम आत्माकी विशुद्धिरूप परिणाम माना गया है कीचका दवा रहना जलकी स्वच्छता ही तो है । तेषामात्यंतिकी हानिः क्षयस्तदुभयात्मकः। क्षयोपशम उद्गीतः क्षीणाक्षीणबलत्वतः ॥ ३॥ उन प्रतिपक्षी कौकी अत्यन्त कालतकके लिये हानि हो जाना क्षय माना गया है, जैसे कि दबी कीचवाले पानीको दूसरे स्वच्छ पात्रों कुढेल लेनेपर कीचका अत्यन्ताभाव हो जाता है । कर्मोकी अनन्तकालतकके लिये हानि हो जानेपर हुआ आत्माका सुविशुद्ध परिणाम ही क्षय पडता है । जैनोंके यहां तुच्छ अभाव कोई पदार्थ नहीं माना गया है । रोगके उपशमसे और रोगके क्षयसे हो जानेवाली आत्माकी विशुदिमें भारी अन्तर है । तथा क्षय और उपशम उन दोनोंका तदात्मक हो रहा परिणाम तो कर्मोकी कुछ क्षीण और कुछ अक्षीण सामर्थ्य हो जानेसे क्षयोपशम भाव मिश्र कहा गया है । सर्वधाति प्रकृतियोका उदयाभावरूप क्षय और उन्हींका सदवस्थारूप उपशम तथा प्रतिपक्षी कर्मोकी गुणको एक देशसे घातनेवाली देशघाति प्रकृतियोंका उदय होनेपर क्षयोपशम परिणाम होता है, जैसे कि कोदो या भांगपत्तीको विशेष प्रकार द्वारा धोनेसे उनकी मद ( नशा ) उत्पादक शक्तियां क्षीण अक्षीण हो जाती हैं । यहां क्षयोपशममें पडे हुये क्षयका अर्थ अत्यन्त निवृत्ति नहीं है। किन्तु उपशम शद्वका साहचर्य होनेसे क्षयका अर्थ फळ नहीं देकर कौका प्रदेशोदय होजाना स्वरूप उदयाभाव है। उदयः फलकारित्वं द्रव्यादिप्रत्ययद्वयात् । द्रव्यात्मलाभहेतुः स्यात् परिणामोनपेक्षिणः ॥ ४ ॥ ___ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इन बहिरंग और अन्तरंग दोनों निमित्त कारणोंसे विपाकमें प्राप्त हो रहे कर्मोका फाल देना रूप कार्य करना उदय है। अर्थात्-द्रव्य, क्षेत्र, कालको बहिरंग कारण
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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