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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके कर्मोके उपशमसे होनेवाला औपशमिकभाव और कोका क्षय होनेपर अनन्तकालतकके लिये सम्भव जानेवाला क्षायिकभाव तया उपशम, क्षय, दोनों या उदय मिलाकर तीनों अवस्थावोंका मिश्रण होजानेपर उपजरहा क्षायोपशामकभाव एवं कर्मोदयसे सम्पाद्य औदायकभाव और उदय आदि की नहीं अपेक्षा रखनेवाले पारिणामिकभाव ये पांच भाव जीवके तदात्मक स्वस्वरूप तत्त्व हैं । अर्थात्--मामव शरीरके जैसे दो हाथ दो पांव नितम्ब, पीठ, उरःस्थल, शिर ये आठ अंग निजतत्त्व है, अथवा वृक्षके स्कंध, शाखा, पुष्प, पत्र, फल ये पांच तदात्मभूत तत्व हैं, उसी प्रकार औपशमिक आदिक पांच भाव जीवके स्व-आत्मभूत निजतत्त्व हैं । ___ अनौपशमिकादिशब्दनिरुक्तित एवौपशमिकादिभावना लक्षणमुपदर्शितं तस्यास्तदव्यभिचारात् । तथा हि यहां सूत्रमें कहे गये औपशमिक, क्षायिक आदि शौकी प्रकृतिप्रत्यय द्वारा निरुक्ति करदेनेसे ही औपशमिक, क्षायिक आदि भावोंका लक्षण ठीक दिखला दिया गया है । क्योंकि उस निरुक्तिका उनके निर्देश अनुसार लक्षण करके व्यभिचार नहीं आता है। जहां शद्वनिरुक्तिका लक्षणके साथ व्यभिचार नहीं आता होय वहां ही पारिभाषिक लक्षण कण्डोक्त किया जाता है। अन्यत्र नहीं। औपशमिक आदिक शब्दोंकी लक्षण गर्भित निरिक्तिको स्वयं ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा प्रसिद्ध कर दिखाते हैं। भावोंके ये पांचों नाम अन्वर्थ हैं। अनुभूतस्वसामार्थ्यवृत्तितोपशमो मतः। कर्मणां पुसि तोयादावधःप्रापितएकवत् ॥ २ ॥ आत्मामें कर्मोंका अपनी सामर्थ्यको प्रकट नहीं करते हुये यों ही सत्तारूप वर्तते रहना उपशम माना गया है जैसे कि जल, वक्खर, आदिमें कतकफल, दूध आदिके सम्बन्धसे नीचे प्रदेशमे कीच प्राप्त करा दी जाती है । अर्थात्---योग और कषायोंके वश हो रहा आत्मा ज्ञानावरण आदि कर्मोका बन्ध करता है। आबाधाकाल और अचल आवलितक कोई भी कर्मफल देनेके लिये अभिमुख नहीं होता है। स्वयोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकं नहीं मिलनेपर भी कर्म उदयमें नहीं आते हैं । यदि उनकी स्थिति पूरी होगई होय तो विना ही फल दिये हुये भले ही खिरजाय । एक ही समय बांधे हुये अनन्त परमाणु पिण्ड हो रहे कर्मोमेसे आवाधा काल पीछे कुछ कर्मोके उदयावली स्रोतमें प्रविष्ट हो चुकने पर भी उन्हीं कोमेसे गुणहानि क्रम अनुसार जिन कर्मोंका उदय चिर भविष्यकालमें आनेवाला है तबतक पूर्व समयमें उनका भी उपशम बना रहता है । अन्तरकरण और सदवस्था रूप ये उपशमके दो भेद हैं । गुणको विधातनेवाले कर्मोको कुछ पहिले समयोंमें उदय प्राप्त करलेना और कुछ कर्मोको उत्कर्षण द्वारा पीछे समयोंमें उदय योग्य बनालेना, इस • अबुद्धि
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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