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तत्त्वाचिन्तामणिः
कहना। क्योंकि मनको पृथिवी आदि आठ द्रव्यपनका निषेध करना असिद्ध है। उसी निषेधकी असिद्धि को हम अनुमानद्वारा स्पष्ट कर दिखलाते हैं। मन ( पक्ष ) स्पर्श गुणवाला द्रव्य है ( साध्य ) अव्यापक द्रव्य होनेसे ( हेतु ) वायुके समान ( अन्वयदृष्टांत ) इस ढंगसे मनको पुद्गल द्रव्यपना सिद्ध हो जाता है। फिर तुमने उस मनको आठ द्रव्योंसे अतिरिक्त परिशेषसे नौमा द्रव्यपना कैसे सिद्ध कर दिया था ? बताओ। हम जैन सिद्धान्ती उस उस मनके पुद्गल निर्मितपनका आगे समर्थन कर देवेंगे । " शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानां" इस सूत्र द्वारा मनको पुद्गलका बनाया हुआ साध दिया जायेगा। इस प्रकरणमें इतने ही प्रसंग अनुसार कथन पर्याप्त है। यहां मनके पुद्गल रचितपनके प्रसंगका बढामा अनुचित है । विद्वानोंको इशारा ही काफी है। .
अत्रान्य द्रव्यमनो भावमनःसहितं द्रव्यं करणत्वात् स्पर्शनादिद्रव्यकरणवदित्यावेदयंति। तदयुक्तं, योगिद्रव्यमनसानेकांतात् । योगिनो हि द्रव्यमनः सदपि न भावमनःसहितं द्रव्येद्रियं च न भावेंद्रिययुक्तं क्षायिकज्ञानेन सह क्षायोपशमिकस्य भावमनोक्षस्य विरोधात् । न च केवलिनो द्रव्यमनोक्षाणि न संति “ बहिरंतरप्युभयथा च करणमविघातीति, वचनात् । ततो विज्ञानविशेषादेव भावमनः साधनीयं, सिद्धाच भावमनसो द्रव्यमनसः सिद्धिरित्यनवा । .
यहां कोई दूसरे पण्डित यो निवेदन कर रहे हैं कि द्रव्यमन (पक्ष ) भावमनसे सहित हो रहा ही द्रव्य है ( साध्यदल ) करण होनेसे ( हेतु ) स्पर्शन आदिक द्रव्यकरणों ( इन्द्रियां ) के समान ( अन्वयदृष्टांत ) । इनका अभिप्राय द्रव्य मनके साथ भावमनका अविनाभाव नियत रखनेका है। आचार्य कहते हैं कि वह उनका कहना युक्तिरहित हैं। क्योंकि यों योगियोंके द्रव्यमनसे हेतुमें व्यभिचार दोष आता है । त्रिकाल त्रिलोकवर्ती पदार्थोंका युगपत् प्रत्यक्ष करनेवाले योगीका द्रव्यमन विद्यमान हो रहा सन्ता भी भावमनसे सहित नहीं है तथा तेरहमे, चौदहमे गुणस्थानवी सर्वज्ञके विद्यमान न हो रहीं पांच द्रव्येद्रियां भी भावेन्द्रियोंसे युक्त नहीं हैं । ज्ञानावरण कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुये क्षायिक केवलज्ञानके साथ ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुये भावमन और भावइद्रियोंके होनेका विरोध है । जिन जीवोंके पास क्षायोपशमिक ज्ञान है उनके भावेंद्रियां सम्भवती हैं । द्रव्येन्द्रियां तो तेरहमे गुणस्थानवाले योगियोंके और चौदहमे गुणस्थानवाले अयोगी महाराजके भी पाई जाती हैं । केवली भगवान्के पांच बहिरंग द्रव्य इन्द्रियां और छठा अन्तरंग द्रव्यमन नहीं है, यह नहीं समझ बैठना । क्योंकि गुरुजी महाराज श्री समन्तभद्राचार्यने बृहत् स्वयंभूस्तोत्रमें नेमिनाथ भगवान्की स्तुति करते समय यों कहा है कि " बहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नार्थकृत, नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिथ' अर्थात्-हे नाथ! बहिरंग इन्द्रियां और अन्तरंग इन्द्रियां भी दोनों प्रकारके करण आपमें हैं किन्तु तुम्हारे ज्ञानका विघात करनेवाले नहीं ह, वे छऊ द्रव्येंद्रियां तो इन्द्रियजन्य कार्य कराना,