SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोककार्तिके क्रमसे ज्ञान कराना, एक साथ ज्ञान न होने देना, आदि प्रयोजनोंको तुममें करानेवाली नहीं है । हे नेमिनाथ भगवन् ! तुम इस सम्पूर्ण जगत्को हथेलीपर रक्खे हुये आमलेके समान सदा कभीके जान चुके थे। असहाय केवलज्ञानका प्रकाश हो जानेपर फिर कोई भी द्रव्येन्द्रिय अपने कार्य भावेन्द्रियका सम्पादन नहीं कर पाती हैं । तिस कारण विज्ञानविशेषसे ही भावमनको साधना चाहिये । हां, भावमनके सिद्ध हो जानेसे द्रव्यमनकी सिद्धि हो जाती है यह निर्दोष व्यवस्था करना है। जिन जीवोंके भावमन पाया जाता है उनके द्रव्यमन अवश्य होगा । किन्तु जिनके द्रव्यमन है उनके भाक्मन होय, नहीं भी होय, इस प्रकार भावमन और द्रव्यमनमें कार्यकारणभावगर्भित व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध है। येषां तु प्राणिनां शिक्षाक्रियालापग्रहणविज्ञानविशेषाभावः शश्वत्तद्भवे निश्चितस्तेषां संझिस्वाभावान भाक्मनोस्ति तदभावान्न द्रव्यमनोऽनुमीयत इत्यमनस्कास्ते ततो युक्तं संज्ञित्यासंज्ञित्वाभ्यां समनस्कामनस्कत्वं व्यवस्थापयितुम् । ___हां, जिन प्राणियोंके तो उस भवमें सर्वदा शिक्षा, क्रिया, आलाप, ग्रहण करनेवाले विज्ञान विशेषोंका अभाव निश्चित हो रहा है, उन मक्खी, चींटी, कोई कोई पशु, पक्षी भी आदि जीवोंके संज्ञीपनका अभाव हो जानेसे भावमन नहीं है और उस भावमनका अभाव हो जानेसे द्रव्यमनके सद्भावका भी अनुमान नहीं किया जा सकता है। कार्यस कारणका अनुमान हो सकता था । अर्थात्-भाक्मन इतना परोक्ष नहीं जितना द्रव्यमन परोक्ष है । हमको अपने भावमनका प्रत्यक्ष भी हो जाता है । दूसरेके भावमनका अनुमान सुलभतासे हो जाता है । अतः भावमनके भभावसे द्रव्यमनका अभाव साध लिया है। व्यापकके अभाव ( व्याप्य ) से व्याप्यका अभाव ( व्यापक ) अनुमित हो जाता है । जैसे कि वन्ह्यभावसे धूमाभावका अनुमान कर लिया जाता है । व्यापक वस्तुका अभाव च्याप्य यानी अल्पदेशवृत्ती हो जाता है और व्याप्य पदार्थका अभाव व्यापक यानी बहुदेशवृत्ती हो जाता है। यों इस हेतुसे वे असंज्ञी जीव अमनस्क जाने जाते हैं । तिस कारण संज्ञीपन और असंज्ञीपनसे जीवोंका समनस्कपना और अपनस्कपना व्यवस्था करानेके लिये युक्तिपूर्ण है । इति सूत्रत्रयेणाक्षमनसां खामिनिश्चयः । संज्ञासंज्ञिविभागश्च सामर्थ्याद्विहितोजसा ॥ ६॥ इस प्रकार तीन सूत्रों करके इन्द्रिय और मनके स्वामी हो रहे जीवोंका निश्चिय कर दिया गया है । तथा संज्ञी जीवोंका विभाग करते हुये परिशेष न्यायकी सामर्थ्यसे असंज्ञी जीवोंका विभाग भी झटिति कर दिया गया समझ लेना चाहिये । अर्थात्-" वनस्पत्यंतानामेकम् ” कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि " इन दोनों सूत्रोंसे पांचों या छऊ इन्द्रियोंके अधिकारी या स्वामी
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy