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________________ १६६ तत्त्वार्यश्लोकयार्तिके पर्यायसे व्यतिरिक्त हो रहा कोई मन नामक नौमा द्रव्य नहीं है, जो कि दूसरे विद्वान् वैशेषिकोंने न्यारा कहा था । क्योंकि तिस प्रकार मनको स्वतंत्र नौमा द्रव्य माननेमें साधक प्रमाणोंका अभाव है । भावमनो ह्यात्मपर्यायः तस्य लब्ध्युपयोगत्वात् । सत्यपि द्रव्यमनसि तदभावे स्वार्थपरिच्छेदप्रादुर्भावायोगात्तत्मसिद्धेः । द्रव्यमनः पुद्गलपर्यायस्तदुपकरणात् द्रव्येंद्रियवत् । तयतिरिक्तं तु द्रव्यांतरं मनो न शक्यं परैः साधयितुं तथा प्रमाणाभावात् । युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगमिति चेन्न, ततो मनोमात्रस्य प्रतिपत्तिस्तद्रव्यांतरत्वासिद्धः। पृथिव्यादिद्रव्यत्वनिषेधात्परिशेषात् तस्य द्रव्यांतरत्वसिद्धिरिति चेन्नैतत्, निषेधासिद्धेः । तथाहि स्पर्शवद्रव्यं मनोऽसर्वगतद्रव्यत्वात् पवनवदिति पुद्गलद्रव्यत्वसिद्धेः। कुतः परिशेषासस्य द्रव्यांतरत्वं समर्थयिष्यते च तस्याग्रतः पौद्गलिकत्वमित्यलं प्रसंगात् । चूंकि भाव मन तो आत्माकी पर्याय है। क्योंकि वह भावमन तो लब्धि और उपयोग स्वरूप है । हृदयमें आठ पत्तेवाले कमलके समान द्रव्यमनके होते संते भी उस भावमनका अभाव हो जानेपर स्वार्थोकी ज्ञप्ति प्रकट नहीं हो पाती है। अतः उस भावमनकी युक्तिप्रमाणसे प्रसिद्धि हो जाती है। हां, दूसरा द्रव्यमन तो ( पक्ष ) पुद्गलकी पर्याय है ( साध्य ) क्योंकि उस भावमनका उपकार करनेवाला करण है ( हेतु ) जैसे कि स्पर्शन आदिक द्रव्येन्द्रियां उपकारक करण होनेसे पुद्गलकी पर्याय हैं । ( अन्वयदृष्टान्त )। हां, दूसरे वैशेषिकों करके उन आत्मपर्याय और पुद्गलपर्यायसे व्यतिरिक्त तो दूसरे द्रव्यको मन नहीं साधा जा सकता है। उनके पास मनको न्यारा द्रव्य साधनेवाले प्रमाणका अभाव है। यदि वैशेषिकोंके सिद्धान्त अनुसार यह प्रमाण प्रस्तुत करो कि " ज्ञानायोगपद्यादेकं मनः ” आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षे ज्ञानस्य भावोऽभावश्च मनसो लिंगम् (वैशेषिकदर्शनम् ) प्रयत्नायौगपद्याज्ञानायौगपद्याच्चैकम् " " युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम् ” एक वारमें कई ज्ञानोंका नहीं उपजना ही ज्ञापक लिंग है । भुरभुरी कचोडी या पापड, खानेपर भी पांचों ज्ञान क्रमसे ही होते हैं। आचार्य कहते हैं कि वह तो न कहना। उससे तो केवल मनकी विश्वासपूर्वक ज्ञाप्ति हो जाती है। उस मनको स्वतंत्र न्यारा द्रव्यपना सिद्ध नहीं हो पाता है । वैशेषिक कहते हैं कि मनकी प्रतिपत्ति हो जानेपर पुनः पृथिवी, जल, आदि आठ द्रव्यपनका निषेध हो जानेसे परिशेष न्यायद्वारा उस मनको भिन्न स्वतंत्र द्रव्यपना सिद्ध ही हो जावेगा । अर्थात्-स्पर्शनवाले पृथिवी, जल, तेज, वायु, इन चार द्रव्योंका परिणाम तो मन हो नहीं सकता है । क्योंकि सुख, दुःख, ज्ञान, आदिके असमवायी कारण हो रहे संयोगके आश्रय ( उद्देश्य ) चार स्पर्शवान् द्रव्य तो नहीं हैं ( विधेय ) तथा सुख, दुःखके साक्षात्कारमें आकाश भी करण नहीं हो सकता है । मनपदार्थ छोटा फिर काल, दिशा, आमास्वरूप भी नहीं है। अतः पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, इन आठ द्रव्योंका निषेध हो जानेसे मनको न्यारा नौमा द्रव्यपना सिद्ध हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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