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________________ तत्त्वार्थ लोकवार्तिक ___" क्षयोपशम विशेष करके युक्त हो रहा जीव ही भावमन है " यह किन्हीं विद्वानों करके संज्ञा विशेषके विना अनुमान करनेके लिये शक्य नहीं है । भावार्थ-कर्मोका विशेषक्षयोपशम अतींद्रिय है । शिक्षा, क्रिया, आदि संज्ञा विशेषोंसे ही क्षयोपशम और तविशिष्ट जीवका अनुमान किया जा सकता है । यदि कोई यों कहे कि क्षयोपशमसे जन्य कार्यविशेषों द्वारा अनुमान किये जा चुके प्रज्ञा, मेधा, प्रतिभा, मनीषा, आदि हेतुओंसे भावमनका अनुमान किया जा सकता है । संज्ञा विशेषकी आवश्यकता नहीं है, आचार्य कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि उन प्रज्ञा या धारणाशालिनी बुद्धि मेधा, अथवा नवीन नवीन उन्मेषवाली प्रतिभा आदिको भी विशेषसंज्ञा स्वरूपपना है । देखिये तर्क, वितर्कणा, स्वरूप प्रज्ञा भला शिक्षा आदि क्रियाको ग्रहण करना स्वरूप ही है। फिर मेधा तो पाठका ग्रहण करना स्वरूप या आलापका ग्रहण करना स्वरूप ही है । इस कारण ये विशेष संज्ञा ही हैं । तिस कारण स्व और अर्थकी उपलब्धि हो जानेसे सिद्ध हो चुका भावमन पुनः पौद्गलिक द्रव्यमनका आकर्षण करा लेता है । उसी बातको अनुमानद्वारा स्पष्ट कर दिखलाते हैं कि स्वार्थोकी उपलब्धि करनेमें भावमन ( पक्ष ) द्रव्यकरणकी अपेक्षा रखता है ( साध्य )। भावस्वरूपकरण होनेसे ( हेतु ) स्पर्शन आदि भावकरणों ( इन्द्रियां ) के समान ( अन्वयदृष्टान्त )। मनसोऽनिंद्रयत्वात्करणत्वमसिद्धमिति चेन, अन्तःकरणत्वेन प्रसिद्धः। अमिंद्रियत्वं तु पुनस्तस्यानियतविषयत्वादिद्रियवैधात् नाकरणत्वात्, स्वार्थीपलब्धौ साधकतमत्वेन करणवोपपत्तेः । न चैवं सूत्रविरोधः, पंचेन्द्रियाणि द्विविधानि द्रव्यभावविकल्पादित्यत्रानिंद्रियस्यापि द्विविधस्य सामर्थ्य सिद्धत्वात् । शरीरवाङ्मनःमाणापानाः पुद्गलानामित्पत्र सूत्रे पौद्गलिकस्य द्रव्यमनसः सूत्रकारेण स्वयमभिधानात् । ____कोई कहता है कि मन तो इन्द्रिय नहीं है। अतःकरणपना हेतु पक्षमें नहीं वर्त्तनेसे असिद्ध हेत्वाभास है । आचार्य कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि अन्तरंगके करणपने करके मनकी प्रसिद्धि हो रही है। हां, फिर अनिन्द्रियपना तो उस मनका नियत विषय नहीं होनेके कारण इन्द्रियोंके विधर्मपनसे है, करणरहितपनेसे नहीं । अर्थात्-इन्द्रियां करण हैं और मन इन्द्रियोंसे भिन्न अनिन्द्रिय है। अतःकरण नहीं होगा, यह नहीं समझ बैठना । देखो, बात यह है कि स्पर्सनादि पांचों बहिरंग इन्द्रियोंके विषय स्पर्श, रस, आदिक नियत हैं और मनका कोई विषय विशेषरूपसे नियत नहीं किया गया है । प्रायः सम्पूर्ण विषयोंमें मनकी प्रवृत्तिं सबने मानी है। अतः इन्द्रियोंके धर्म नियत विषयत्वसे वैधर्म्य रखनेवाले अनियत विषयत्व हो जानेसे मनमें अनिन्द्रियपना है। अन्य इन्द्रियोंके समान मनमें भी स्वार्थोकी उपलब्धिमें प्रकृष्ट उपकारक होनेसे करणपना समुचित बन रहा है । यदि कोई यों कहें कि यो मनको भी करणपना माननेपर सूत्रसे विरोध हो जायगा। सूत्रमें पांच इन्द्रियां ही करण मानी गयीं हैं । आचार्य कहते हैं कि यों कोई सूत्रसे विरोध नहीं आता है । क्योंकि " पंचेंद्रियाणि,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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