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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नियत हो रहे विचारशाली मनःसहित प्राणियोंमें वर्त रहा ही अनुभवा जाता है। अन्यथा यानी विशेष क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले स्मरणविशेष, धारणाविशेष, अवायविशेष, आदिके विना ही विचारने वाले भावमनकी सिद्धि कर लोगे तो सभी संज्ञी प्राणियोंमें या सभी दार्शनिकोंके यहां भावमनकी व्यवस्था नहीं हो सकती है । अतः विशेषक्षयोपशमसे हुये भावमनःस्वरूप रूप, शिक्षा, क्रिया, आलाप उपदेशग्रहणरूप संज्ञाको धारनेवाले जीव समनस्क हैं शेष प्राणी अमनस्क हैं। यह सिद्धान्त व्यवस्थित हो जाता है।
भावमनोऽन्यथानुपपत्त्या द्रव्यमनोपि सिध्द्यतीत्याह ।
भावमनकी अन्यथा यानी द्रव्यमनको स्वीकार किये विना असिद्धि है। इस कारण द्रव्यमन भी उन मनःसहित जीवोंके सिद्ध हो जाता है, इसी बातको श्री विद्यानन्दस्वामी वार्तिकद्वारा कह रहे हैं।
क्षयोपशमभेदेन युक्तो जीवोनुमन्यते । सद्भिर्भावमनस्तावत् कैश्चित्संज्ञाविशेषतः ॥३॥ तत्सद्व्यमनो युक्तमात्मनः करणत्वतः। . स्वार्थोपलंभने भावस्पर्शनादिवदत्र नः ॥४॥
विशेष हो रहे क्षयोपश करके युक्त हो रहा जीव किन्हीं सज्जन पुरुषों करके शिक्षा, क्रिया, आलाप, ग्रहणरूप संज्ञा विशेष हेतुसे अनुमान द्वारा भावमन तो जान लिया ही जाता है। वह विद्यमान हो रहा भावमन ( पक्ष ) द्रव्य मनसे युक्त है ( साध्य ) स्व और अर्थकी उपलब्धि करनेमें आत्माका कारण होनेसे ( हेतु ) भावस्पर्शन इन्द्रिय आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त )। हम स्याद्वादियोंके यहां इस प्रकरणमें दोनों प्रकारके मन अभीष्ट हैं, जो कि संज्ञी जीवोके पाये जाते हैं। अर्थात्एकेंद्रिय जीवोंके लब्धि, उपयोग, स्वरूप भावस्पर्शन इन्द्रिय है । तथा आत्मप्रदेश और पौद्गलिक पिंडस्वरूप द्रव्य स्पर्शन इन्द्रिय भी है । उसी प्रकार मनवाले जीवोंके घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रमाण आत्मप्रदेश ( अभ्यन्तरनिवृत्ति ) और मनोवर्गणासे बनाया गया छोटा पौद्गलिक पिण्ड स्वरूप द्रव्यमन ( बाह्यनिर्वृति ) तथा मानस मतिज्ञानावरण एवं विशेष श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे हुई विशुद्धि ( लब्धि ) और अनुभव या विचाररूप उपयोग भावमन ये विद्यमान हैं।
___ न हि संज्ञाविशेषाहते क्षयोपशमविशेषेण युक्तो जीव एव भावमनः कैश्चिदनुमातुं शक्यते। प्रज्ञामेधादेः कार्यविशेषानुमिताच्छक्यत एवेति चेन, तस्यापि संज्ञाविशेषरूपत्वात् । ऊहापोहात्मिका हि प्रज्ञा शिक्षादिक्रियाग्रहणलक्षणैव, मेधा पुनः पाठग्रहणलक्षणालापग्रहरूपैवेति । ततो भावमनः स्वार्थोपलब्धेः सिद्धं द्रव्यमनो वाकर्षयति । तथाहि-भावमनः स्वार्थोपलब्धौ द्रव्यकरणापेक्ष भावकरणत्वात् स्पर्शनादिभावकरणवत् ।