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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके onarwas ameriAAKAAMKAKAL कोई कह रहा है कि मनरहित जीवोंमें सामान्यरूपसे स्मरणका सद्भाव आप जैनोंने स्वीकार किया ही है । उस सामान्य स्मरणसे विशेष स्मरणकी भी मनरहित जीवोंमें सिद्धि हो जायगी। आचार्य कहते हैं कि यह तुम नहीं कह सकते हो, क्योंकि उस सामान्यस्मरणका उस विशेषस्मरणके साथ अविनाभाव नहीं है । देखो, जिस मनुष्यके अनुभव किये हुये पदार्थका सामान्यरूपसे स्मरण है, उस मनुष्यके उस अनुभूत पदार्थका स्मरणविशेष भी होय, ऐसा नियमसे नहीं देखा गया है। अन्यथा विशेषरूपसे संकेत ग्रहण करना पुनः पुनः पर्यालोचन, पुनः विशेषरूपसे धारण करना, इनके अभावका प्रसंग हो जायगा । स्थूलबुद्धिवाले विद्यार्थियोंको भी सामान्यरूपसे ग्रन्थका स्मरण बना रहता है। किन्तु उन उन प्रकरणोंका विशेषतया स्मरण नहीं होनेसे वे परीक्षामें उत्तीर्ण नहीं पाते हैं। तभी तो उनको उत्कट अभ्यास, दृढ परामर्श, करनेकी आवश्यकता समझी जाती है। दूसरी बात यह है कि स्मरणसामान्यका कैसे न कैसे ही केवल विशेषस्मरणके साथ अविनाभाव मान भी लिया जाय तो भी स्मरणसामान्यका शिक्षा, क्रिया, आलापके ग्रहणके निमित्त हो रहे स्मरण विशेषसे अविनाभाव तो कथमपि सिद्ध नहीं होगा। अन्यथा सभी कीट, पतंग, वनस्पति, यावत् प्राणियोंके उन शिक्षा क्रिया आदिके ग्रहण करने में निमित्त हो रहे स्मरणविशेषका प्रसंग हो जायगा। किन्तु कीट आदिकोंके शिक्षा, क्रिया, या स्मरणविशेषका मानना किसी भी वादीको अभीष्ट नहीं है। प्रत्यक्षबाधित या अनुमानबाधित पोले सिद्धान्तको भला कौन विचारचतुर पुरुष स्वीकार कर लेगा। तिस कारण सिद्ध होता है कि किसीका देवदत्त, जिनदत्त आदि संज्ञापूर्वक नामनिर्देश करलेने अथवा संज्ञानरूप ज्ञानसामान्यको यदि संज्ञा माना जायगा तो सभी प्राणियोंमें समनस्कपना प्राप्त हो जायगा। इस विशेषणसे किसी विशेष जीवकी व्यावृत्ति नहीं हो सकेगी । केला, आम, शीषम, पत्थर, मट्ठी, ज्वाला, जल, व्यंजनपवन, गेंडुआ, चींटी, मक्खी, इत्यादि सभी जीवोंका रूढि संज्ञाओंद्वारा स्वकीय नाम कथन किया जाता है । वृक्ष, चींटी, आदि जीवोंके ज्ञान भी यथायोग्य पाया जाता है । आहार आदि संज्ञायें तो सभी संज्ञी, असंज्ञी, जीवोंके विद्यमान हैं। कतिपय निर्ग्रन्थोंके यदि नहीं हुयीं तो इससे कोई बोझ नहीं घट सकता है। उन आहार, भय, आदि संज्ञाओंके हेतु हो रहे स्मरण सामान्य भी सब जीवोंके पाये जाते हैं । धारणाज्ञानके विना स्मृति नहीं हो पाती है। अतः सामान्यधारणा भी स्मरणका कारण सब जीवोंके इष्ट किया जाता है । उस संस्कारस्वरूप धारणा ज्ञानका निमित्त अवायज्ञान सामान्य और उसका भी कारण ईहा सामान्य तथा ईहाका भी कारण अवग्रहसामान्य ये सम्पूर्ण प्राणियोंमें साधारण रूपसे विद्यमान हैं । अनादि काल की जन्मपरम्परामें हुये अभ्याससे उपज रहे वे अवग्रह आदि सामान्य स्वीकार कर लेने चाहिये । भावार्थ नामनिर्देश और सामान्य मतिज्ञानके समान आहार भय, आदि संज्ञा और उनकी कारणपरम्परामें पडे हुये स्मरण, धारणा, ईहा अवाय, अवग्रह ये सभी संज्ञी, असंज्ञी, जीवोंमें साधारण हो रहे मानने चाहिये। किन्तु फिर विशेषक्षयोपशमको निमित्त पाकर हुआ भावमन तो सभी जीवोंका साधारण स्वभाव नहीं है। वह भावमन तो प्रत्येक प्रत्येक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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