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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १६१ - इस उक्त कथनकरके जो किन्हींने दो तीन पंक्तियोंद्वारा यों कहा था वह भी निराकृत कर दिया गया है कि देखो मनरहित जीवोंके स्मरणके विना भी आहार आदिकी अभिलाषायें सिद्ध हो रही हैं । अतः दूधयुक्त स्तनके अभिमुख अपने मुखको उद्योगी कर रहे, उसी दिनके उत्पन्न हुये बालककी अभिलाषा ( पक्ष ) स्मरणपूर्वक है ( साध्य ) अभिलाषा होनेसे ( हेतु ) अस्मदादिकोंकी अभिलाषाके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार यहां अनुमानमें कहे गये हेतुका व्यभिचार दोष हो जानेसे परलोककी सिद्धि नहीं हुयी और तैसा होनेपर स्मृति होनेसे ही अभिलाषाका सद्भाव नहीं बना । अतः अकलंकदेवने जो अनुष्टुभ छन्दद्वारा कहा था कि स्मृतिके विना जीवोंके अभिलाषा नहीं उपजती है, और वह स्मृति भी अनुभवस्वरूपदर्शनके विना नहीं होती है। और वह दर्शन तो उसी दिनके उत्पन्न हुये बच्चेमें भी पूर्व जन्मांतरोंसे हुआ लक्षित किया जाता है । इस प्रकार श्रीअकलंकदेवका वचन विचारपूर्वक चातुर्यको लिये हुये नहीं है यह प्राप्त हुआ। भावार्थ-मक्खी, बर्र, आदि मनरहित जीवोंके स्मरणके बिना भी अभिलाषा हो जाती है । इसी प्रकार उसी दिनके हुये मनसहित बच्चेमें माताके स्तनकी-ओर मुख करते हुये उतावलेपनके साथ अभिलाषा करना भी जन्मान्तरके अनुभूत विषयोंकी स्मृतिके विना ही हो जायगा । ऐसी दशामें आत्मा विचारा अनादि अनन्त सिद्ध नहीं हो सकता है। श्रीअकलंकदेवने स्वकीय ग्रन्थमें जो परलोकी, अनाद्यनन्त, जीवको सिद्ध करने के लिये युक्ति दी है, विचार करनेपर उसमें चातुर्य नहीं दीखता है। कश्चित्से लेकर “ आयातम् " तक चार्वाक कह चुके हैं । अब ग्रन्थकार कहते हैं कि वह चार्वाकका कहना भी हमने खण्डित कर दिया है । क्योंकि स्मरणसामान्यके विना असंज्ञी या संज्ञी किसी भी जीवमें अभिलाषा होनेका असम्भव है । अतः उस अभिलाषत्व हेतुका अनेकान्तिकपना नहीं बन पाता है । हमारा स्मरण पूर्वकपना सिद्ध करनेको दिया गया अभिलाषत्व हेतु निर्दोष है । अमनस्क जीवोंके सामान्यस्मरणपूर्वक अभिलाषायें होकर विशेष प्रवृत्तियां हो जाती हैं । हां, मनःसहित संज्ञी जीवोंके विशेष स्मरणपूर्वक विलक्षण अभिलाषाओंसे मनः द्वारा ही शिक्षा, क्रिया, अलाप, ग्रहण, करनारूप संज्ञा सम्भवती है। संज्ञी, असंज्ञी, दोनों प्रकारके जीवोंके परलोककी सिद्धि अनिवार्य है। पूर्वजन्मोंकी वासना अनुसार ही असंज्ञिओंके चमत्कारक कार्य देखे जाते हैं । कार्यकारणभाव तो तर्कके अगोचर है। . न चामनस्केषु स्मरणसामान्यसद्भावात्स्मरणविशेषस्य सिद्धिः तस्य तेनाविनाभावाभावात् । न हि यस्यानुभूतस्मरणसामान्यमस्ति तस्य स्मरणविशेषो नियमादुपलभ्यते विशेषसमयाभावप्रसंगात् । विशेषमात्राक्निाभावेपि वा न शिक्षाक्रियालापग्रहणनिमित्तस्मरणविशेषाविनाभावः सिध्येत् प्राणिमात्रस्य तस्मसंगात् । ततो नाममतिवदाहारादिसंज्ञा तहेतुश्च स्मृतिसामान्यं धारणासामान्यं च तन्निमित्तमवायसामान्यमीहासामान्यमवग्रहसामान्यं च सर्वप्राणिसाधारणमनादिभवाभ्याससंभूतमभ्युपगंतव्यं, न पुनः क्षयोपशमनिमित्तम् भावमनः तस्य प्रतिनियतमाणिविषयतयानुभूयमानत्वात् । अन्यथा सर्वत्र भावमनसो व्यवस्थापयितुमशक्तेः।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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