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________________ १६० तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके पाठ आलाप है तथा जो कार्य अकार्यको विचारता है तत्त्व, अतत्त्व, की शिक्षा लेता है, नाम लेकर बुलाया गया चला आता है, वह समनस्क है । शेष संसारी जीव अमनस्क है। न ह्यमनस्कानां शिक्षाक्रियालापग्रहणलक्षणा संज्ञा संभवति यतस्तदुपलब्धेः केषांचित्समनस्कत्वं न सिध्द्येत् । न चामनस्कानां स्मरणसामान्याभावोऽनादिभवसंभूतविषयानुभवोभावायाः सामान्यधारणायास्तद्धेतोः सद्भावात् आहारसंज्ञादिसिद्धेः प्रवृत्तिविशेषोपलब्धेः । न च सैव संज्ञा मुनिभिरिष्टा स्मृतिविशेषनिमित्तायास्तस्याः प्रकाशनात् । ___ मनरहित एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, जीवोंके वह शिक्षा, क्रिया, आलापोंको ग्रहण करना स्वरूप संज्ञा नहीं सम्भवती है। जिससे कि उस संज्ञाकी उपलब्धि रूप हेतुसे किन्हीं दूसरे विचारक जीवोंके मनसहितपना सिद्ध नहीं होता, अर्थात्-घोडा, मनुष्य, आदि जीवोंमें हेतुके वर्तजानेसे समनस्कपना सिद्ध होजाता है। यहां कोई आक्षेप करे कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि जीवोंके भी आहार, जल, निवासस्थान, आदिमें प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः उनके आहार संज्ञा आदिक और उनका कारण धारणा या स्मृति, माननी पडेगी। स्मृति तो मनवाले जीवके होते हैं। अतः द्वीन्द्रिय आदिके भी मनकी सम्भावना है। आचार्य महाराज कहते हैं कि मनरहित जीवोंके सामान्य रूपसे हुये स्मरणका अभाव नहीं है। अनादि संसार परम्परामें प्राप्त हये विषयोंके अनभवसे उत्पन्न हुयी सामान्यधारणा रूप उसके हेतुका सद्भाव अमनस्क जीवोंके भी पाया जाता है। उससे आहार संज्ञा, भयसंज्ञा, आदिकी सिद्धि हो जानेसे अमनस्कोंकी विशेष प्रवृत्तियां हो रहीं दीख रहीं हैं। किन्तु वह आहारसंज्ञा या सामान्य धारणा ही तो यहां मुनिवर उमास्वामी महाराज करके संज्ञा अभीष्ट नहीं की गयी है । विशेष रूपसे स्मृतिका निमित्त हो रही उस धारणाका यहां प्रकाश किया है । भावार्थ-सामान्य धारणापूर्वक हुयी सामान्य स्मृति तो मनरहित जीवोंके भी हो जाती है । किन्तु विशेष धारणा हतुक स्मरण तो मनसहित जीवोंके ही होता है । सामान्य ईहा पूर्वक अवाय और सामान्य अवाय पूर्वक धारणा तथा सामान्य धारणा पूर्वक हुये स्मरण ज्ञानोंसे मनरहित जीव भी आहार आदि विषयोंकी प्राप्तिके लिये प्रवृत्ति कर रहे देखे जाते हैं। ज्ञानकी सामर्थ्य भी कुछ कम नहीं है। कोई भी ज्ञान अपने अपने अभीष्ट हो रहे हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार कर देता है । इस सामान्य क्रियामें मनकी कोई आवश्यकता नहीं है। - एतेन यदुक्तं कश्चिदमनस्कानां स्मरणाभावेप्यभिलाषसिद्धेस्तदहर्जातदारकस्य स्तन्याभिमुखं मुखमर्जयतोभिलाषः स्मरणपूर्वकोऽभिलाषत्वात् अस्मदायभिलाषवदित्यत्र हेतोरनैकांतिकत्वात् परलोकासिद्धिः । तथा च " न स्मृतेरभिलापोस्ति विना सापि न दर्शनात् । तद्धि जन्मांतराच्चाहर्जातमात्रेपि लक्ष्यते " इत्यकलंकवचनमविचारचतुरमायातं इति । तदपि प्रत्याख्यातं, स्मरणसामान्यमंतरेण क्वचिदप्यभिलाषासंभवात् तद्धेतोरनैकांतिकत्वानुपपत्तेः।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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