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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
धनिकपन माननेका एकांत पकडना गर्हित है । किसीका प्रश्न है कि फिर यह बताओ कि संज्ञावाले जीवोंका मनसहितपना भला किस प्रमाणसे सिद्ध है ? ऐसी आकांक्षा होनेपर श्री विद्यानंद स्वामी वार्तिकों द्वारा युक्तियोंको दिखलाते हैं ।
संज्ञिनां समनस्कत्वं संज्ञायाः प्रतिपत्तितः । सा हि शिक्षाक्रियालापग्रहणं मुनिभिर्मता ॥१॥ नानादिभवसंभूतविषयानुभवोद्भवा । सामान्यधारणाहारसंज्ञादीनामधीरपि ॥२॥
संज्ञी जीवोंके ( पक्ष ) मनसहितपना है ( साध्य ) विचारआत्मक बुद्धिकी प्रतिपत्ति होनेसे ( हेतु ) और वह संज्ञा तो निश्चयसे मुनियों करके शिक्षा क्रिया करना, आलाप करना, ग्रहण करना, मानी गयी है । अर्थात् —बंदर, घोडा, मैना, तोता, सर्प, आदिक प्राणी सिखाये अनुसार क्रिया करते हैं, कल्पित नाम रख लेनेपर तदनुसार आते जाते हैं, सतर्क रहते हैं, मंगानेपर पदार्थीको ले आते हैं । अतः संज्ञाकी प्रतिपत्ति होनेसे बहुतसे पशु, पक्षी, तथा मनुष्य, स्त्री, देव, देवी, ये सब मनसहित जीव हैं । किंतु अनादिकालकी जन्मपरम्परासे हुये विषयोंके अनुभवसे उत्पन्न हुयी सामान्य धारणा, सामान्य अवाय, आदिक और आहार संज्ञा, भय संज्ञा आदिक तो यहां प्रकरणमें संज्ञा नहीं मानी गयीं हैं । नाम मतिज्ञान भी यहां संज्ञा नहीं है । अर्थात्-“ अनाद्यविद्यादोषोत्थचतुःसंज्ञाज्वरातुराः " आहार आदिक चार संज्ञायें, तो सम्पूर्ण जीवोंके अनादि कालसे लग रही हैं तथा मधुमक्षिका, भोरी, चींटियां, दीमक, मकडी, आदिक कीट पतंग भी सामान्यधारणारूप संज्ञाके अनुसार गृह बनाना, बच्चे बनाना, बच्चोंका मोह करना, खाद्य एकत्रित करना, ठहरने योग्य रक्षाका स्थान बनाना आदि विस्मय जनक कार्योको कर रहे हैं । मधु मक्खी, ततै या बरै, घरघुली, तो यहां वहां जाकर अपने खाद्य पदार्थोंको और घर बनानेके लिये मट्टी या काठको लाकर पुनः अपने नियत उसी स्थानपर लौट आते हैं । ये कार्य तो मनके विना अनादि कालीन विषयानुभवकी तृष्णासे बना लिये जाते हैं । किसीका नाम रख लेना या सामान्यरूपसे ज्ञान करना भी संज्ञा सिद्ध है। किन्तु यहां इन संज्ञाओंका ग्रहण करने पर तो सभी संसारी जीव समनस्क हो जायेंगे । कोई असंज्ञी होनेके लिये नहीं बचेगा । अतः इन संज्ञाओंका ग्रहण नहीं करना । किन्तु “ सिक्खाकिरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण जो जीवो सो सण्णी, तविवरीओ असण्णी दु"। शिक्षा, क्रिया, उपदेश, आलाप, को मनके अवलम्बसे ग्रहण करनेवाले बैल, हाथी, तोता, आदि जीव संज्ञी हैं । ठीक हितका ग्रहण और आहितका त्याग जिससे हो सके वह शिक्षा है, इच्छा अनुसार हाथ, पांव, आदिको चलाना किया है, वचन, कोडा, आदि द्वारा उपदेश देकर कर्तव्य पालन करना उपदेश है, श्लोक आदिका