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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
उष्ण, आदिको जानते हैं, जीभसे चावल, गेहूं, रक्त, मट्टी, आदिका स्वाद लेते हैं । और चींटी, खटमल, जूआं, दीमक, आदि जीवोंके वे स्पर्शन, रसना, दो इन्द्रियां बढ़ चुकी तीसरी नासिका इन्द्रि यसे अधिक हैं । ऐसा मन्तव्य कहा जाता है। भोरा, मक्खी, मकडी, मच्छर, पतंगा आदि शरीरधारी तथा जीवोंके वे स्पर्शन, रसना, घ्राण, इन्द्रियां चौथी चक्षु इन्द्रियसे बढ रहीं मानी गयी हैं । एवं मनुष्य, घोडे, बैल, देव, आदि जीवोंके तो वे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु इन्द्रियां, पांचवीं श्रोत्र इन्द्रियसे बढ़ रहीं विद्यमान हैं । ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण और युक्तियोंसे निश्चय हो रहा है । देखिये, उन उन जीवोंके नियत हो रहीं दो, तीन, चार, या पांच इन्द्रियों को कारण मानकर हुये विज्ञानके मूलपर होनेवाली विषयोंमें प्रवृत्तियां देखी जा रहीं हैं । विद्वानों के यहां अपनेमें किसी भी नियत इन्द्रियजन्य ज्ञानकी भित्तिपर हुयी प्रवृत्तिकी उपलब्धि हो जानेसे जैसे उस इन्द्रियका सद्भाव मान लिया जाता है। हम देखकर पुस्तकको उठा रहे हैं, अतः हमारे चक्षु इन्द्रिय अवश्य है, शब्दोंका श्रवणकर प्रवृत्ति होरही दीखती है, अतः श्रोत्र इन्द्रियका सद्भाव है, उसी प्रकार कृमि आदिक, पिपीलिका आदिक, भ्रमर आदिक, मनुष्य आदिक जीवोंके अतीन्द्रिय इन्द्रियां जान ली जाती हैं, उपकरण इन्द्रियोंका बहुत अंशोंमें प्रत्यक्ष भी हो रहा है।
के पुनः संसारिणः समनस्काः के वाऽमनस्का इत्याह ।
पूज्य गुरुजी महाराज, अब यह बताओ कि कौनसे संसारी जीव फिर मनकरके सहित हैं ? और कौनसे संसारी जीव मनसे रहित हैं । इस प्रकार विनीत शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज सूत्र द्वारा उत्तर कहते हैं।
संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४॥ . हितप्राप्ति, अहित परिहार, तथा गुण अथवा दोषको विचार करना स्वरूप संज्ञा जिनके पायी जाती है वे जीव मनसहित हैं।
सामर्थ्यादसंज्ञिनो अमनस्का इति मृत्रितं, तेनामनस्का एव सर्वे संसारिणः सर्वे समनस्का एवेति निरस्तं भवति । कुतः पुनः संज्ञिनां समनस्कत्वं सिद्धमित्युपदर्शयति ।
____ संज्ञावान् जीवोंको विधिमुखसे समनस्क कह दिया गया है। अतः परिशेष न्यायकी सामर्थ्यसे असंज्ञी जीव अमनस्क हैं, यह भी सूत्रद्वारा कहा जा चुका है। तिस कथन करके सम्पूर्ण संसारी जीव मनरहितःही हैं अथवा सभी संसारी जीव मनसहित ही हैं, इस प्रकार एकान्तमन्तव्य खण्डित हो जाता है । कोई कोई दार्शनिक तो किसी भी आत्माके मनइन्द्रिय को नहीं मानते हैं और वैशेषिक तो प्रत्येक आत्माको मनसहित स्वीकार करते हैं । जितनी ही आत्मायें हैं उतने ही उनके एक एक नियत हो रहे अनन्ते मन हैं । ये दोनों ही एकांत युक्तियों। बाधित हैं । जैसे कि सर्वको निर्धन या