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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पूर्वकपनको साध देती है और वह स्पर्शन इन्द्रियजन्य ज्ञान तो स्पर्शन इन्द्रियको साध देता है । इस कारण बाधारहित होकर उन वनस्पति जीवोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय सध जाती है। उस वनस्पतिके समान पृथिवी, जल, आदि जीवाके भी एक स्पर्शन इन्द्रियकी सत्य संभावना की जाती है। कोई बाधक प्रमाण नहीं है।
केषां यादींद्रियमित्याह । अब महाराज, यह बताओ कि किन किन जीवोंके फिर दो, तीन, आदि इन्द्रियां हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २३ ॥ ___लट आदिक, चींटी आदिक, भोंरा आदिक, मनुष्य आदिक, इन जीवोंके स्पर्शनको मूल मानकर रसनासे प्रारम्भ कर एक एक बढ रही इन्द्रियां हैं । कृमि आदिकोंके रसनासे बढ रही स्पर्शन हैं, चींटी आदिकोंके घाणसे बढ चुकी स्पर्शन और रसना हैं । इत्यादि लगा लेना। एकैकमिति वीप्सानिर्देशावृद्धानीति बहुत्वनिर्देशाच्च वाक्यांतरोपप्लवं कथमित्याह ।
सूत्रमें एक एक इस प्रकार कई बार आवृत्त होकर कहा जा चुकनेवाला वीप्सा निर्देश किया है और वृद्धानि इस प्रकार बहुत्व संख्याको कहनेवाला बहुवचन निर्देश किया है । अतः अन्य वाक्योंका उपप्लव ( प्रवाहरचना ) कर लिया जाता है । वे वाक्य किस प्रकार बढा लिये; जाते हैं। ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिकोंको कहते हैं ।
तथा कृमिप्रकाराणां रसनेनाधिकं मतं । वृद्धे पिपीलिकादीनां ते घ्राणेन निरूप्यते ॥ १ ॥ चक्षुषा तानि वृद्धानि भ्रमरादिशरीरिणां । श्रोत्रेण तु मनुष्यादिजीवानां तानि निश्चयात् ॥ २ ॥ तत्तद्धेतुकविज्ञानमूलानामुपलब्धितः । विषयेषु प्रवृत्तीनां स्वस्मिन्निव विपश्चिताम् ॥ ३ ॥
तिस प्रकार दूसरे दूसरे वाक्योंका उपप्लवःकरनेपर यों अर्थ हो जाता है कि लट, गेंडुआ, जौंक, सीप, आदि प्रकारवाले जीवोंके वह स्पर्शन इन्द्रिय तो दूसरी रसना इन्द्रियसे अधिक हो रही मानी है । अर्थात्-लट आदिक क्षुद्र कीटोंके स्पर्शन और रसना दो इन्द्रियां हैं । ये स्पर्शनसे शीत