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________________ १५२ अर्थौतरका विशेषतया अवधारण करना या विचार करना अंतरंग इन्द्रिय मनके द्वारा होता है । अन्यथा नहीं । उक्त कार्य पांचों बहिरंग इन्द्रियोंसे साध्य नहीं है । शब्दको सुनकर उसके वाच्यार्थ ज्ञान करना, हिताहित विचारपूर्वक क्रिया करना, शिक्षा या उपदेश ग्रहण करना, तथा कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य या तत्त्व, अतत्त्वकी मीमांसा करना ये सब विचारक मन इन्द्रियके कार्य हैं । तत्वार्थ श्लोकवार्तिके UPT अर्थ इत्यभिसंबंधः सामर्थ्यात् । ननु चाश्चयमाणमनिंद्रियमत्र तत्कथं तस्य विषयो निरूप्यते इत्याह । " पूर्वसूत्रमें पडे हुये " तदर्थाः " शद्वसे अकेले अर्थकी अनुवृत्ति कर लेना । पूर्वापर सम्बन्ध रखनेवाले 'वाक्यार्थकी सामर्थ्य तत् और बहुवचनांत " अर्थाः " की अनुवृत्ति नहीं कर केवल अर्थ शब्दका ही अनुवर्तन किया जायगा । यहां शंका है कि अनींद्रिय मन तो यहां प्रकरण में नहीं सुना जा रहा है तो फिर यहां कैसे उस अप्रकृत मनका विषयनिरूपण किया जाता है ? बताओ, ऐसी आशंका होनेपर श्री विद्यानंद आचार्य उत्तरको कहते हैं, सावधान होकर सुनिये । T सामर्थ्याद्गम्यमानस्यानिंद्रियस्येह सूत्रितः । श्रुतमर्थः श्रुतज्ञानगम्यं वस्तु तदुच्यते ॥ १ ॥ जब कि इन्द्रियोंके विषय प्रतिपादनका प्रकरण है पूर्वापार कथनकी सामर्थ्यसे जान लिये जा रहे मनका विषय श्रुत है, यों यहां सूत्र द्वारा निरूपण किया गया है। “ मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलान ज्ञान" सूत्र श्रुतका अर्थ श्रुतज्ञान है । किंतु इस सूत्रमें श्रुतज्ञानद्वारा जानी जा रही वस्तु वह श्रुत कही जा रही है । " , पंचैवेंद्रियाणीति वदता मनोनिंद्रियमंतःकरणं सामर्थ्यादित्युक्तं भवति तस्य च विषयः श्रुतमितीह सूत्रयतो न सूत्रकारस्य विरोधः । श्रुतं पुनः श्रुतज्ञानसमधिगम्यं वस्तूच्यते विषये विषयिण उपचारात् । " पंचेंद्रियाणि " इस सूत्र द्वारा पांच ही बहिरंग इन्द्रियोंको कह रहे सूत्रकार करके ईषत् इन्द्रिय हो रहा अंतरंग करण मन तो सामर्थ्यसे ही प्राप्त हुआ, यों कह दिया जाता है । अतः उस मनका विषय श्रुत है। इस प्रकार यहां स्वतंत्र सूत्र बनाकर कह रहे सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजको कोई विरोध प्राप्त नहीं होता है । अर्थात् - पहिले अध्यायमें " तदिंद्रियानिद्रियनिमित्तम् " मनःपर्ययज्ञानं, “ न चक्षुरनिंद्रियाभ्याम् " ये कथन किये हैं । दूसरे अध्यायमें भी अभी "समनस्काSमनस्काः कहा है। एतावता अंतरंग करण तो मन इन्द्रिय है, ऐसा कह दिया गया प्राप्त हो जाता है। बहिरंग इन्द्रि - या प्रकरण में मनको नहीं कहा तो क्या हुआ ? | मनके भी दोनों प्रकार निर्वृत्ति उपकरण और लब्धि 19514 "
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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