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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १५३ उपयोग ये भेद अभीष्ट हैं। हां, मनका विषय अभीतक नहीं बताया था, प्रकरणकी सामर्थ्यसे भी नहीं जाना जा सकता है । उसके लिये विषय निरूपण के प्रकरणमें अन्य इन्दियों के साथ लगे हाथ इस सूत्र द्वारा मनका विषय कण्ठोक्त किया है। सूत्रमें पडे हुये श्रुत शब्द का अर्थ फिर श्रुतज्ञान नहीं करना । किंतु श्रुतज्ञानसे भ प्रकार जान लिया गया पदार्थ कहा गया है । विषयमें विषयीका उपचार है । जैसे कि प्रत्यक्ष ज्ञानके विषय हो रहे घटको प्रत्यक्ष कह देते हैं, वैसे यहां भी श्रुतज्ञानसे जानने योग्य विषयको दिया है । विषयी हो रहे ज्ञानका धर्म श्रुतपना विषयमें धर दिया है । 1 मतिज्ञानपरिच्छेद्यं वस्तु कथमनिन्द्रियस्य विषय इति चेन्न, तस्यापि श्रुतज्ञानपरिच्छेद्यत्वानतिक्रमात् । अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानपरिच्छेद्यमपि श्रुतज्ञानपरिच्छेद्यत्वादनिंद्रियस्य विषयः स्यादिति चेत्, न किंचिदनिष्टं । तथा हि यहां कोई शंका करता है कि जब श्रुतज्ञानका विषय ही मनसे जाना जायगा तो मतिज्ञानसे जान लिये गये दुःख, इच्छा, पीडा, आदिक पदार्थ भला मनके विषय किस प्रकार हो सकेंगे ? बताओ । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि मतिज्ञानसे जाने हुये उस पदार्थको भी श्रुतज्ञान द्वारा जानने योग्यपनका अतिक्रमण नहीं होता है । अर्थात् - जो मतिज्ञानसे जाना गया है वह श्रुतज्ञानसे अवश्य जाना जा सकता है । हां, श्रुतज्ञानसे जान लिया गया विषय तो बहुभाग मतिज्ञान द्वारा जानने योग्य नहीं है । देखो श्रुतज्ञान द्वारा परोक्षरूपसे विषय की गयीं अनेक अर्थपर्यायोंको मतिज्ञान नहीं छू पाता है । अतः श्रुतज्ञानके विषयको मन जानता है । इतने कथन से ही मतिज्ञानके विषयको भी मन विचार लेता है, यह बिना कहे अर्थापत्ति द्वारा कह दिया जाता है। ड बढाना व्यर्थ है । पुनः कोई कटाक्ष करता है कि यों तो अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, और केवलज्ञान करके जानने योग्य अर्थ भी श्रुतज्ञान द्वारा जानने योग्य होनेसे मनका विषय बन बैठेगा। क्योंकि अवधि द्वारा प्रत्यक्ष किये हुये पदार्थ में भी श्रुतज्ञान करके विकल्पनायें उठाई जाती हैं । जैसे मतिज्ञान द्वारा रूप, रस, आदिका एकदेश प्रत्यक्ष होकर उनमें अर्थान्तरोंको विचारनेवाला श्रुतज्ञान प्रवर्तता है उसी प्रकार मन:पर्यय और केवलज्ञान द्वारा पूर्ण विशद जाने जारहे पदार्थो में भी श्रुतज्ञान प्रवर्तता है । अतः सभी ज्ञानोंके विषय इस मन इन्द्रियके अर्थ हो जायंगे । ग्रंथकार कहते हैं कि यों कहने पर तो हमको कुछ भी अनिष्ट नहीं पडता है । इसी बात को स्पष्ट कर वार्तिकद्वारा कहे देते हैं । मनोमात्रनिमित्तत्वात् श्रुतज्ञानस्य कार्नतः । स्पर्शनादद्रियज्ञेयस्तदर्थो हि नियम्यते ॥ २ ॥ पदार्थोंको सम्पूर्णरूपसे विषय करनेवाले श्रुतज्ञानका निमित्तकारण केवल मन है । उक्त दो सूत्रोंमें स्पर्शन आदि इन्द्रियोंद्वारा जानने योग्य स्पर्श आदिक ही उन इन्द्रियों के अर्थ हैं। ऐसा नियम 20
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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