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________________ १४६ तत्त्वार्थश्लोकवार्त आत्माकी सहायक कारण हैं। क्योंकि परिच्छित्ति क्रियामें व्यापार कर रहे आत्माके निकटवर्त्तीपने करके वर्तनेके कारण वे इन्द्रियां लोकमें करण हो रहीं जानी जाती हैं। हां, फिर उन उन स्पर्शज्ञान, रसज्ञान, आदिका आवरण करनेवाले ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मोके क्षयोपशमकी विचित्रता इन्द्रियां आत्मपरिणति स्वरूप भावेन्द्रियां हैं, ऐसा मान लेना चाहिये । तेषां परस्परं तद्वतच भेदाभेदं प्रत्यनेकांतोपपत्तेः । न हि परस्परं तावदिद्रियाणामभेदैकांतः स्पर्शनेन स्पर्शस्येव रसादीनामपि ग्रहणप्रसक्तेरिंद्रियांतर प्रकल्पनानर्थक्यात् । कस्यचिद्वैकल्ये साकल्ये वा सर्वेषां वैकल्यस्य साकल्यस्य वा प्रसंगात् । नापि भैदैकांतस्तेषामेकत्वसंकलनज्ञानजनकत्वाभावप्रसंगात् । संतानांतरेंद्रियवत् । मनस्तस्य जनकमिति चेन्न, इंद्रियनिरपेक्षस्य तज्जनकत्वासंभवात् । इंद्रियापेक्षं मनोनुसंधानस्य जनकमिति चेत्, संतानांतरेंद्रियापेक्षं कुतो न जनकं ? प्रत्यासत्तेरभावादिति चेत्, अत्र का प्रत्यासत्तिः । अन्यत्रैकात्मतादात्म्यीद्देशकालभावप्रत्यासत्तीनां व्यभिचारात् । ततः स्पर्शनादीनां परस्परं स्यादभेदो द्रव्यार्थादेशात्, स्याद्भेदः पर्यायार्थादेशात् । उन स्पर्शन आदि इन्द्रियों का परस्परमें और उस उस इन्द्रियवाले आत्माके साथ भेद तथा अभेदके प्रति अनेकान्त बन रहा है । अर्थात् इन्द्रियोंका परस्परमें कथंचिद् भेद, अभेद है तथा इन्द्रिय वाले आत्माके साथ भी इन्द्रियोंका कथंचित् भेद अभेद है । सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद नहीं है । देखिये, इन्द्रियोंका परस्परमें एक दूसरेके साथ एकान्त रूपसे अभेद मानना तो ठीक नहीं पडेगा । क्योंकि स्पर्शन इन्द्रियसे जैसे स्पर्शका ग्रहण हो रहा है, वैसे ही अकेली स्पर्शनसे रस, गन्ध, आदिकोंके भी ग्रहण हो जानेका प्रसंग होगा । जब स्पर्श, रसना, घ्राण, आदि सभी इन्द्रियां अभिन्न हैं तो ऐसी दशामें स्पर्शनके अतिरिक्त अन्य इन्द्रियोंकी कल्पना करना व्यर्थ पडेगा । दूसरी बात यह हैं कि किसी एक इन्दियकी विकलता या सकलता हो जानेपर सभी इन्द्रियोंकी विकलता या सफलता हो जानेका प्रसंग होगा । आंख या कानके टूट जानेपर सभी इन्द्रियां नष्ट भ्रष्ट हो जायंगीं, एकेन्द्रिय जीवके भी पांचों इन्द्रियां बन बैठेंगीं । अतः इन्द्रियोंका परस्परमें सर्वथा अभेद मानना उचित नहीं । तथा इन्द्रियोंका परस्परमें एकान्त रूपसे भेद भी नहीं मानना चाहिये। क्योंकि एकपन और सकलन रूपसे ज्ञानकी उत्पत्ति करानेके अभावका प्रसंग हो जायगा । जैसे कि अन्य सन्तान यानी दूसरी दूसरी आत्माओंकी इन्द्रियोंमें एकत्व रूपसे संकलन ज्ञान नहीं हो पाता है । भावार्थ - देवदत्तसे ि दत्त सर्वथा भिन्न है । देवदत्तने अपनी चक्षुसे घटको देखा, जिनदत्तने स्वकीय स्पर्शन इन्द्रियसे घटको छुआ, ऐसी दशामें जिनदत्त यों नहीं कह सकता है कि जो ही मैं देखनेवाला था वही मैं घटको छू रहा हूं । कारण कि सर्वथा भिन्न ज्ञाताओंमें या उनकी इन्द्रियों द्वारा हुये ज्ञानोंमें जोडनेबाला संकलन ज्ञान नहीं बनता है । उसी प्रकार इन्द्रियों का भेद माननेपर जो ही मैं देख चुका हूं वही मैं छू रहा 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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