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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १४५ इष्ट नहीं है। सर्वज्ञ देव युगपत् त्रिलोक त्रिकालवर्त्ती पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान कर रहे हैं । यदि कोई यों कहें कि सम्पूर्ण वीर्यान्तराय कर्मोंका क्षय हो जानेसे उस सर्वज्ञके ज्ञानकी क्रमसे प्रवृत्ति नहीं होगी । अनन्तशक्तिद्वारा सबका ज्ञान युगपत् हो जायगा । यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तिस ही कारणसे अर्थात् वीर्यान्तरायका क्षय हो जानेसे ही सर्वज्ञके ज्ञानको इन्द्रियोंकी अपेक्षा भी नहीं होवे । सर्वज्ञ ज्ञानमें प्रथम इन्द्रियोंकी अपेक्षा मान कर पीछे अनन्त वीर्य होनेसे क्रम प्रवृत्तिका रोकना क्लिष्ट कल्पना है । तिस ही से हमने बहुत अच्छा यों कहा था कि बहुत उपकारी होनेसे उमास्वामी महाराजने सर्व इन्द्रियोंके अन्तमें श्रोत्रका कथन किया है। इस प्रकार प्रकरणको समाप्त कर दो तो अच्छा है। एकै वृद्धिज्ञापनार्थ वा स्पर्शनादिक्रमवचनं । अथवा यह सिद्धान्त उत्तर सबसे अच्छा है कि भविष्य चौथे सूत्रमें लट, चींटी, भोंरा, मनुष्य, आदिकों के एक एक बढी हुयीं इन्द्रियां कहीं जावेंगी । अतः एक एक इन्द्रियकी योग्यतानुसार वृद्धिको समझानेके लिये स्पर्शन, रसन, आदि इन्द्रियोंका क्रमसे वचन किया गया है । अन्यथा द्वन्द्व कर अल्प अक्षरवाली या पूज्य इन्द्रियका पहिले प्रयोग हो जाता। बात यह है कि जीवों के इन्द्रियों की वृद्धि जिस जिस क्रमसे हुई है, उसी ढंगसे सूत्रमें इन्द्रियोंका पाठक्रम है । कुतः पुनः स्पर्शनादीनि जीवस्य करणान्यर्थोपलब्धावित्याह । यहां कोई जिज्ञासु पुनः पूंछता है कि जीवके अर्थकी उपलब्धि करनेमें स्पर्शन आदिक इन्द्रियां करण हो रहीं हैं, यह किस प्रमाणसे निर्णय किया जाय ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधानको कहते हैं । स्पर्शनादीनि तान्याहुः कर्तुः सांनिध्यवृचितः । क्रियायां करणानीह कर्मवैचित्र्यतस्तथा ॥ १॥ कर्त्ता आत्मा सन्निकट वर्तीपनसे प्रवृत्ति करनेसे आचार्य उन स्पर्शन आदिकोंको ज्ञप्ति क्रियामें करण कह रहे हैं तथा कर्मोंकी विचित्रतासे वे इन्द्रियां भावेंद्रिय हो रहीं हैं, अर्थात् —नामकर्मकी विचित्रतासे उत्पन्न हुयीं द्रव्य इन्द्रियां तो ज्ञान करनेमें आत्माकी करण हो जाती हैं और ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायके क्षयोपशमकी विचित्रतासे वे इन्द्रियां भावेन्द्रिय हो जाती हैं । 18 स्पर्शनादीनि द्रव्येंद्रियाणि तावन्नामकर्मणो वैचित्र्याद्युपलब्धेरात्मनः स्पर्शादिपरिच्छेदनक्रियायां व्याप्रियमाणस्य सांनिध्येन वृत्तेः करणानि लोके प्रतीयते । भावेंद्रियाणि पुनस्तदावरणवीर्यातरायक्षयोपशमस्य वैचित्र्यादिति मंतव्यं । जगत् के विधाता नामकर्मकी विचित्रता, चमत्कृति, आदि देखी जा रही हैं । अतः स्पर्शन आदिक पांच द्रव्येंद्रियां तो स्पर्श, रस, आदिकी परिच्छित्ति क्रियाको करनेमें साधकतम हो रहीं कर्त्ता 19
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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