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________________ १४४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके त्रीन्द्रिय जीव और त्रीन्द्रियोंकी अपेक्षा चतुरिन्द्रियोंके धारी जीव भी थोडे थोडे हैं । सर्व इन्द्रियों के अंतमें कर्ण इन्द्रियका कथन यों किया गया है कि सभी इन्द्रियोंकी अपेक्षा श्रोत्र इन्द्रिय इस जीवका बहुत उपकारी है । कानोंसे उपदेशको सुनकर अनेक जीव हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार कर लेते हैं । उत्कृष्ट ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी बन जाना कानोंसे ही साध्य हो रहा कार्य है। सभी मोक्षगामी जीव कानोंसे उपदेशको सुनकर देशनालब्धि द्वारा साक्षात् या परम्परासे मुक्तिलाभ कर सके हैं। जीवको विशेषज्ञ बनानेवाला श्रोत्र ही है । यहां किसीकी शंका है कि रसना इन्द्रिय भी तो वक्तापने करके बहुत उपकारी हो रही है। स्वर्ग या मोक्षके उपयोगी पदका उच्चारण करना, अध्ययन करना, जाप्य देना, इनमें रसना इन्द्रिय कारण है । अतः रसना ही अन्तमें कहनी चाहिये । आचार्य कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि तुमने श्रोत्रको बहुत उपकारी स्वीकार कर पुनः रसनाका भी बहुत उपकारीपना आपादान किया है । अतः तुम्हारे मुखसे ही हमारी बातका समर्थन हो जाता है । एक बात यह भी है कि श्रोत्रकी प्रणालिकासे विषयको निर्णीत कर पुनः उस रसनासे उपदेशका उच्चारण होता है । अतः रसनाको श्रोत्रकी परतंत्रता तुमको स्वीकार करनी पडेगी । यहां रसन शब्दसे जिह्वाका खुरपाके समान लम्बा, चौडा, मोटा उपकरण लेना, कर्मेन्द्रियोंको माननेवाले जिसको कि वाक् शब्दसे पकडते हैं। सच पूछो तो रसना केवल स्वाद लेनेमें चरितार्थ हो रही है। हां, चर्मकी जिव्हा वक्तापने में व्यापार करती है । यों बोलनेमें उपकरण हो रही जिव्हाने श्रोत्र इन्द्रियकी पराधीनता अङ्गीकार कर रक्खी है । पुनः यहां कोई यों शंका करता है कि सर्वज्ञमें उस श्रोत्रकी परतंत्रताका अभाव अर्थात् सर्वज्ञ भगवान् तो श्रोत्रेन्द्रियके बलाधानसे अन्य वक्ताओंसे पदार्थका निर्णय कर पुनः वक्तापन को प्राप्त नहीं होते हैं । किन्तु सर्वज्ञदेव तो ज्ञानावरणका क्षय हो जानेसे केवलज्ञानको उपजाकर वक्तापन करके सम्पूर्ण शास्त्रोंका उपदेश कर देते हैं । अतः रसना ही बहुत उपकारक प्रतीत होती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि यहां प्रकरणमें इन्द्रियोंका अधिकार चला आ रहा है । अतः जिन जीवोंमें इन्द्रियोंसे किया गया हित, अहित, उपदेश है, उन जीवोंके प्रति श्रोत्र इन्द्रिय अधिक उपकारी मानी गयी है । अतीन्द्रियज्ञानधारी सर्वज्ञ देवकी बात न्यारी है । सामान्य पुरुषों में देखी गयी टेवका विशिष्ट पुरुषोंमें भी आपादान नहीं करना चाहिये । दूसरी बात यह है कि उच्चारण करनेमें सर्वज्ञके रसना इन्द्रियका व्यापार नहीं है । नामकर्मकी विशेष प्रकृति तीर्थकरत्वके उदयसे भगवान्के सर्व अंगोंसे निकल रही मेघगर्जन के समान दिव्यध्वनि भव्योंके भाग्यवश उपज जाती है। अतः सर्वज्ञकी वक्तृत्व कलामें रसनाका कोई व्यापार नहीं है। को श्रोत्रकी पराधीनता अनिवार्य है । वे वक्ता पहिले अपने गुरुओंसे स्वकीय श्रोत्र द्वारा वाच्यार्थ का निर्णय कर पश्चात् जिव्हासे उपदेश देते हैं । भगवान् तीर्थकरके ज्ञानको यदि इन्द्रियों के व्यापार की अपेक्षा मानी जावेगी तो ज्ञानकी क्रम क्रमसे प्रवृत्ति होने का प्रसंग होगा। जोकि किसी भी सर्वज्ञवादीको I 1 1 हां, अन्य वक्ताओंकी वचन कलामें रसना 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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