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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १४३ 66 "" ! 55 गणीय " श्रवणे " धातुसे त्रल् प्रत्यय करनेपर श्रोत्र शद्वकी सिद्धि हो जाती है । ज्ञानकी उत्पत्ति में इन्द्रियां करण हैं । अतः परतंत्रपनेकी विवक्षासे करणमें युट् आदि प्रत्ययों को कर लेना । हां, स्पर्शन इन्द्रिय छू रही है, रसना इन्द्रिय चाट रही है, यों स्वतंत्रताकी विवक्षा होनेपर कर्त्ता में भी उक्त पांचों शवों को साध लिया जाता है युव्या बहुलम् यहां " बहुल वचनसे कर्त्ता में भी युट् प्रत्ययकी विधि हो जाती है तिस कारण इन स्पर्शन आदिकोंकी शद्व निरुक्ति के अनुसार अर्थवाचक संज्ञा कर देने से इस प्रकार स्पर्शन, रसन, आदि व्यपदेशको धारनेवालीं ये इन्द्रियां हैं । शद्वार्थ कर लिया जाय तथा निरुक्ति अनुसार निर्दोष लक्षण घट जानेसे इस प्रकार लक्षणवालीं भी पांच इन्द्रियां हैं । इस ढंगसे पूर्व सूत्रोंको मिलाकर वाक्यार्थका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । स्पर्शनस्य ग्रहणमादौ शरीरव्यापित्वात्, वनस्पत्यंतानामेकमित्यत्राभीष्टत्वात् सर्वसंसारिषूपलब्धेश्च । ततो रसनघ्राणचक्षुषां क्रमवचनमुत्तरोत्तराल्पत्वात्, श्रोत्रस्यति वचनं बहूपकारित्वात् । रसनमपि वक्तृत्वेन बहूपकारीति चेत् न तेन श्रोत्रप्रणालिकापादितस्योपदेशस्योच्चारणात् तत्पारतंत्र्यस्वीकरणात् । सर्वज्ञे तदभाव इति चेन्न, इन्द्रियाधिकारात् । न हि सर्वज्ञस्य शब्दोच्चारणे रसनव्यापारोस्ति तीर्थकरत्वनामकर्मोदयोपजनितत्वात् भगवत्तीर्थकरावगमस्य करणव्यापारापेक्षत्वे क्रममवृत्तिप्रसंगात् । सकलवीर्यांतरायक्षयान्न क्रमप्रवृत्तिस्तस्येति चेत्, तत एव करणापेक्षापि मा भूत् । ततः सूक्तं श्रोत्रस्यांते वचनं बहूपकारित्वादिति । ,, ग्रहण सम्पूर्ण पौगलिक शरीरमे ओत, पोत, व्याप रही होनेसे स्पर्शन इन्द्रियका सम्पूर्ण इन्द्रियों के आदिमें ग्रहण किया गया है और " पृथ्वी से लेकर वनस्पतिपर्यंत जीवों के एक, प्रधान, या प्रथम स्पर्शन इन्द्रिय है, इस प्रकार यहां भविष्य सूत्रमें अभीष्ट होनेसे भी सबके पहिले स्पर्शन इन्द्रियका है । सबसे बडी बात तीसरी यह है कि संपूर्ण संसारी जीवोंमे स्पर्शन इन्द्रियकी उपलब्धि हो रही है । अतः नाना जीवों की अपेक्षा व्यापक होनेसे आदिमे स्पर्शनका उपादान सूत्रकारने किया है। उसके पीछे रसना, घ्राण, और चक्षुः इन तीन इन्द्रियों का क्रमसे वचन किया है । क्योंकि उत्तर उत्तर थोडे प्रदेश अथवा थोडे थोडे स्वामी हैं । अर्थात् - "चक्खू सोदं घाणं जिम्भायारं मसूरजवणाली । अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु अणेय संठाणं ॥ अंगुल असंखभागं संखेज्जगुणं तदो विसेसहियं । तत्तो असंखगुणिदं अंगुलसंखेज्जयं तत्तु " इन गोम्मटसार जीवकाण्डकी दो गाथाओंके अनुसार सब से थोडे प्रदेश चक्षुः के माने हैं । चक्षुः से श्रोत्र इन्द्रियके प्रदेश संख्यात गुणे हैं । श्रोत्र इन्द्रियने जितने आत्मप्रदेशों को घेरा है, उनसे पल्यके असंख्यातमें भाग अधिक आत्मप्रदेशों को प्राण इन्द्रियने घेरा है। घ्राण इन्द्रियसे जिव्हाका अवगाह असंख्यात गुणा है । इस प्रकार रसना, घ्राण, और चक्षुः में प्रदेशोंकी संख्या उत्तरोत्तर अल्प है। हां, श्रोत्र के प्रदेश चक्षुसे अधिक हैं । उसका अभी कथन ही नहीं है। तथा " वितिचपमाणमसंखेणवहिदपदरंगुलेणहिदपदरं " इस गाथा अनुसार द्वीन्द्रियोंकी अपेक्षा
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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