________________
૨
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
धर्मकी कार्योंमें अनुवृत्ति हो जाती है । कारणमें इन्द्रियपना हैं तो उसके कार्य बन रहे उपयोगमें भी इन्द्रियपनेका व्यवहार हो जाता है ! देखो, अग्निको प्रकाशकपना माननेपर उस अग्निके कार्य हो रहे दीपकको प्रकाशकपना विरुद्ध नहीं पडता है । एक बात यह है कि जिस ही स्वभाव करके उपयोगको इन्द्रियपना कहा जाता है उस ही स्वभाव करके फलपना इष्ट नहीं किया जाता है, जिससे कि विरोध दोष हो जाय। देखो, स्वार्थसंवित्ति क्रियाको करनेमें प्रकृष्ट साधकपन स्वभाव करके ही उस उपयोगको इन्द्रियत्वका व्यपदेश है और क्रियास्वरूप होनेसे उपयोगको फलपनेका निरूपण है । प्रदीप के समान । एक पदार्थमें भी करणपना और फलपना घटित हो जाता है, अर्थात् - प्रदीप ( कर्ता ) अपने प्रकाश स्वभाव करके ( करण ) पदार्थोंको या स्वयंको ( कर्म ) प्रकाश रहा है ( क्रिया )। यहां इस वाक्य में प्रकाशन क्रियाका साधकतम हो रहा प्रकाशस्वरूप करण है और प्रकाशन क्रियास्वरूप फल है तथा स्वतंत्र हो रहा प्रदीप आत्मक कर्ता है इस बात को हम कई बार निरूपण कर चुके हैं । इन्द्रिय शब्दका अर्थ उपयोगमें प्रधानतासे विद्यमान है । कथंचित् भेद, अभेद, होनेसे उपयोग में कितने ही अनेक स्वभाव घटित हो जाते हैं ।
।
किं व्यपदेशलक्षणानि तानींद्रियाणीत्याह ।
किसीका प्रश्न है कि उन इन्द्रियों का नाम निर्देश क्या है ? और किस लक्षणवालीं वे इन्द्रियां ? इस प्रकार बुभुत्सा होनेपर शिष्य के प्रति श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र द्वारा इन्द्रियों के नाम कीर्त्तन, आनुपूर्वी और निरुक्तिपूर्वक लक्षणको कह रहे हैं ।
स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ १९ ॥
जिससे छुआ जाय ऐसी स्पर्शन इन्द्रिय १ आत्मा जिससे रसको चाटे यानी पुद्गल के स्वादको जाने ऐसी रसना इन्द्रिय २ सूंघनेमें आत्माका हेतु बन रही घ्राण इन्द्रिय ३ अर्थोको देखने में आत्माका निमित्त हो रही चक्षुः ४ तथा आत्माको शव सुनानेवाला कान ५ इस प्रकार पांच इन्द्रियां हैं ।
स्पर्शनादीनां करणसाधनत्वं पारतंत्र्यात् कर्तृसाधनत्वं च स्वातंत्र्याद्बहुलवचनात् । तेनान्वर्थसंज्ञाकरणादेवंव्यपदेशान्येवंलक्षणानि च पंचेंद्रियाणीत्यभिसंबंधः कर्तव्यः ।
सूत्रमें कहे गये स्पर्श आदि शवों को करणसाधनपना है । क्योंकि वे परतंत्र हैं और स्वतंत्रता . होने से स्पर्शन आदि शद कर्ताीमें भी साध लिये जाते हैं । भावार्थ - तुदादि गण की " स्पृश संस्पर्शने " धातुसे करणमें युट् प्रत्यय करनेपर स्पर्शन शद्ध साध लिया जाता है । चुरादि गणकी " रस आस्वादस्नेहनयोः " धातुसे करणमें युट् प्रत्यय कर देनेपर रसन शब्द बन जाता है । भ्वादिगण
"
“ घ्रा गन्धोपादाने ” धातुसे युट् प्रत्यय करनेपर त्राण
शब्द स जाता है । अदादि गणकी
'
चक्षीञ् व्यक्तायां बाचि ” धातुसे उसि प्रत्यय कर देनेसे
चक्षुः शद्व साधु हो जाता है । भ्वादि
I