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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भावेन्द्रियाणि लब्ध्यात्मोपयोगात्मानि जानते । स्वार्थसंविदि योग्यत्वाद्यापृतत्वाच्च संविदः ॥ १ ॥
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लब्धस्वरूप और उपयोगस्वरूप हो रहीं भावेंद्रियोंको पण्डितजन जान रहे हैं ( प्रतिज्ञा वाक्य) स्व और अर्थ ज्ञानमें योग्यता होनेसे तथा सम्वित्तिके व्यापार युक्त होनेसे ( हेतु ) अर्थात्-स्वार्थसम्वित्तिकी योग्यतासे लब्धिस्वरूप भावेंद्रियका अनुमान हो जाता है और सम्वित्तिके व्यापारसे उपयोग आत्मक इन्द्रियोंका अनुमान कर लिया जाता I
लब्धिस्वभावानि तावद्भावेंद्रियाणि स्वार्थसंवित्तौ योग्यत्वादात्मनः प्रतिपद्यते । न हि तत्रायोग्यस्यात्मनस्तदुत्पत्तिराकाशवत् स्वार्थसंविद्योग्यतैव च लब्धिरिति लब्धींद्रियसिद्धिः । उपयोगस्वभावानि पुनः स्वार्थसंविदो व्यापृतत्वान्निश्चिन्वंति । न ह्यव्यापृतानि स्पर्शादिसंवेदनानि पुंसः स्पर्शादिप्रकाशकानि भवितुमर्हति सुषुप्तादीनामपि तत्प्रकाशनप्रसंगात् ।
प्रथम ही लब्धिस्वरूप छह भावेन्द्रियां तो स्वार्थों की संवित्ति करनेमें योग्यतासे आत्माके हो रही समझ ली जातीं या विद्वान् इन्द्रियों को समझ लेते हैं । उस स्वार्थसम्वेदनमें अयोग्य हो रहे आत्मा के उन विशुद्धिस्वरूप लब्धियों की उत्पत्ति नहीं हो पाती है। जैसे कि आकाश द्रव्यके क्षयोपशम विशेष नहीं उपजता है । और स्वार्थसम्वित्तिकी योग्यता ही तो लब्धि है। इस प्रकार अनुमान प्रमाणसे लब्धि स्वरूप इन्द्रियोंकी सिद्धि हो जाती है तथा फिर उपयोगस्वरूप दूसरी भावेन्द्रियोंको स्वार्थसम्वित्तिका व्यापार करनेसे पण्डितजन निर्णीत कर लेते हैं । व्यापाररहित हो रहे स्पर्श आदिके सम्वेदन तो आमाको स्पर्श आदिके प्रकाशक नहीं हो सकते हैं । अन्यथा गाढ सोती हुयी अवस्थावाले या मूर्च्छित हो रहे आदि पुरुषों को भी उन स्पर्श आदिके प्रकाश जानेका प्रसंग हो जायगा । अतः व्यापार करस्पर्श आदिको प्रकाश रहे ज्ञान या दर्शन तो उपयोगस्वरूप भावेन्द्रियां हैं ।
स्वार्थप्रकाशने व्यापृतस्य संवेदनस्योपयोगत्वे फलत्वादिंद्रियत्वानुपपत्तिरिति चेन्न, कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्तेः । न हि पावकस्य प्रकाशकत्वे तत्कार्यस्य प्रदीपस्य प्रकाशकत्वं विरुध्यते । न च येनैव स्वभावेनोपयोगस्येंद्रियत्वं तेनैव फलत्वमिष्यते यतो विरोधः स्यात्, साधकतमत्वस्वभावेन हि तस्येंद्रियव्यपदेशः क्रियारूपतया तु फलत्वं प्रदीपवत् । प्रदीपः प्रकाशात्मना प्रकाशयतीत्यत्र हि साधकतमः प्रकाशात्मा करणं क्रियात्मा फलं स्वतंत्रात्मा कर्तेति प्ररूपितप्रायं ।
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किसीकी शंका है कि स्वार्थीके प्रकाशनेमें व्यापार युक्त हो रहे सम्वेदनको उपयोगपना माननेपर फल होजानेके कारण इन्द्रियपना नहीं बन सकता है, अर्थात्-इन्द्रियोंका फल उपयोग है, वह भला करणस्वरूप इन्द्रिय कैसे हो सकता है ? आचार्य कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि कारणोंके
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