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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
पौगलिक कर्मको प्रेरक निमित्त पाकर कर्त्ता आत्मा जिस आत्मसम्बन्धी या पुद्गलसम्बन्धी परिणामको बनाता है वह निर्वृत्ति है तथा निर्वृत्तिका उपकार करनेवाला उपकरण होता है । यों निर्वृत्ति और उपकरण यों दो दो भेदस्वरूप पांचों द्रव्येन्द्रियां हैं ।
निर्वर्त्यत इति निर्वृत्तिः सा द्वेधा बाह्याभ्यंतरभेदात् । तत्र विशुद्धात्ममदेशवृत्तिरभ्यंतरा तस्यामेव कर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलमचयो बाह्या ।
अप्रेरक निमित्त हो रहे आत्मा वार्ताको परवश करनेवाले प्रेरक निमित्त नाम कर्म करके आत्म पुरुषार्थ द्वारा जो आत्मा या पुद्गलकी परिणतियां बनवाई जातीं हैं वे निर्वृत्तिस्वरूप इन्द्रियां हैं । इस प्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव, दोषोंका निवारण करनेवाले कई विशेषणों को लगाकर निर्वृत्ति शङ्खकी निरुक्तिसे निर्दोष अर्थ निकाल लिया गया है। वह निर्वृत्ति बाह्य और अभ्यंतर भेदों से दो प्रकार है । तिन दो प्रकारोंमें विशुद्ध आत्माके प्रदेशोंका वर्त्तना तो अभ्यन्तर निर्वृत्ति है । और उन आत्मप्रदेश स्वरूप अभ्यन्तर निर्वृत्तिमें ही कर्मोंके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त कराया गया पुद्गल पिण्ड तो बाह्यनिर्वृत्ति है । अर्थात् — अंगुल के असंख्यातवें भाग या संख्यातवें भाग अथवा संख्यात 1 घनांगुल परिमित विशुद्ध आत्मप्रदेशोंकी चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा, त्वचा, स्वरूप रचना हो जाना अभ्यन्तर निर्वृत्ति है । यह जीवतत्त्व आत्मक पदार्थ है तथा योग द्वारा ग्रहण कीं गयीं आहारवर्गणाओंमेंसे शरीर और स्वासोच्छ्रास के उपयोगी द्रव्यसे शेष बचे हुये स्वल्प बढिया पुद्गल द्रव्यकी मसूर, यवनाली, तिलपुष्प, ( या धतूर पुष्प, ) खुरपा अथवा अपने अपने शरीर अनुसार अनेक प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय आकृति ऐसी रचनाको धार रहा पुद्गल प्रचय तो बाह्यनिर्वृत्ति है । यह पुद्गल तत्त्व है, जैसे कि आंखोंके भीतर इन्द्रिय आकार वाले आत्माके चेतन प्रदेश आंखइन्द्रियकी अभ्यन्तर निर्वृत्ति है । और उन आत्मप्रदेशोंपर उपादान कारण आहारवर्गणाका इन्द्रिय पर्याप्तिस्वरूप आत्मपुरुषार्थ द्वारा बना दिया गया मसूर सारिखा अतीन्द्रिय पुद्गल विवर्त्त तो आंखकी बाह्य निर्वृत्ति है । यह द्रव्येन्द्रिय अतीन्द्रिय है । अन्य दर्शनोंमें प्रायः यही इन्द्रिय बखानी गयी है । शेष इन्द्रिय भेदोंकी गहराईतक वे नहीं पहुंच पाये हैं ।
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उपक्रियतेनेनेत्युपकरणं । तद्वपि द्विविधं बाह्याभ्यंतरभेदात् । तत्र बाह्यं पक्षपुटादि, कृष्णसारमंडलाद्यभ्यंतरं । निर्वृत्तिश्चोपकरणं च निर्वृत्युपकरणे द्रव्येंद्रियमिति जात्यपेक्षयैकवचनं । जिस अवयव करके विशेष आत्म प्रदेश और विशेष पुद्गल रचनास्वरूप निर्वृत्तिका उपकार किया जाता है वह उपकरण इन्द्रिय है। वह उपकरण भी बाह्य और अभ्यन्तर भेदसे दो प्रकारका है। उनमें बाह्य उपकरण तो नेत्रइन्द्रिय के दोनों पलक, रोमावली, आदि हैं तथा नेत्र के भीतरका शुक्ल भाग और उसके भी बीच में पडा हुआ गोल काला या तिल अंश ये सब नेत्र इन्द्रिय के अभ्यन्तर उपकरण हैं । कृष्णसारका अर्थ चक्षुर्गोलक किया जाय । निर्वृत्ति और उपकरण यों इतरेतर योग द्वन्द्व करने