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तत्वार्थ लोकवार्तिके
ज्ञान होता है, वह अनुमान कहा जाता है, अर्थको जाननेमें इन्द्रियां निमित्त हो रहीं कारक हेतु हैं । ज्ञापक हेतु नहीं हैं । दूसरी बात यह है कि यह कोई कोई अनुमान जैनसिद्धान्त अनुसार विशेषतया परोक्षज्ञान स्वरूप ही नहीं है । एकदेशसे विशदपना होनेसे अनुमानको प्रत्यक्षपका कोई विरोध नहीं है । अर्थसे अर्थान्तरको जान लेना रूप परार्थानुमान भले ही सर्वथा परोक्ष होवे । किन्तु अभिनिबोधरूप स्वार्थानुमान तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी हो सकता है। हां, सामान्यरूपसे परोक्ष हो रहे अन्य अनुमान ज्ञानोंको तो मुख्यरूपसे वह परोक्षपना हम स्याद्वादियों के यहां अभीष्ट ही किया गया है । क्योंकि जो अपनी उत्पत्तिमें अन्य ज्ञानों की अपेक्षा रखता है उस ज्ञानको परोक्षपना कहा गया है । पहिले प्रकरणों में भी इसका विचार हो
चुका 1
कथं पुनः पंचैवेंद्रियाणि जीवस्येत्याह ।
कोई जिज्ञासु पूंछता है कि आचार्य महाराज ! फिर यह हैं, यह सिद्धान्त किस प्रकार प्रमाणसिद्ध माना जावे ? ऐसी आचार्य उत्तर कहते हैं ।
बताओ कि जीवके पांच ही इन्द्रियां अभिलाषा होनेपर श्री विद्यानन्द
पंचेंद्रियाणि जीवस्य मनसोनिंद्रियत्वतः । बुद्ध्यहंकारयोरात्मरूपयोस्तत्फलत्वतः ॥ १ ॥ वागादीनामतो भेदासिद्धेधसाधनत्वतः । स्पर्शादिज्ञानकार्याणामेवंविधविनिर्णयात् ॥ २ ॥
संसारी जविके इन्द्रियां पांच ही हैं। क्योंकि द्रव्यमन तो अनिन्द्रिय है तथा बुद्धि और " अहं अहं " मैं मैं इस प्रतीतिका उल्लेख करनेवाला अहंकार भी तो आत्मास्वरूप है । वे बुद्धि और अहंकार तो इन्द्रिय और मनके कार्य हो रहे फल हैं। हां, वचन बनानेवाले अवयव ( जवां ) हाथ, पांव, आदिक अवयवोंको इस स्पर्शन इन्द्रियसे भिन्न मानना असिद्ध है ज्ञानका साधन होने स्पर्श, रस, आदिके ज्ञानोंको कार्य बना रहीं स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका ही इस प्रकार पांच भेद रूपसे शेषतया निर्णय किया गया है । कर्मेन्द्रियां मानीं गयीं वाक् आदिक भले ही क्रियाओंकी साधन हो जांय, किन्तु ज्ञानको करानेमें उन बाक् आदिका कोई उपयोग नहीं है । तभी तो ज्ञान इन्द्रियां पांच मानी गयीं हैं ।
न हि मनः षष्ठमिंद्रियं तस्येंद्रियवैधर्म्यादनिंद्रियत्वसिद्धेः । नियतविषयाणींद्रियाणि, मनः पुनरनियतविषयमिति तद्वैधर्म्य प्रसिद्धमेव । करणत्वाद्विंद्रलिंगत्वादिंद्रियं मनः इति चेत्, तदत्र धूमादिनानेकांतात् । तदपि हि करणमात्मनोर्थोपलब्धौ लिंगं च भवति न चेंद्रियमिति । बुध्द्यहंकारयोरिंद्रियत्वान्न पंचैवेंद्रियाणीति चेत् न, तयोरात्मपरिणामयोरिंद्रियानिंद्रियफलत्वात् ।