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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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निवृत्तं " इस सूत्र द्वारा घ प्रत्यय कर शद्बनिरुक्तिसे अर्थ निकलता है । गति नामकर्म या अंगोपांग नामकर्मकी उत्तरोत्तरभेदवाली विशेष प्रकृति हो रहीं स्पर्शन, रसना, आदि इन्द्रियनामक नामकर्मके उदयको निमित्त पाकर स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियां बन जाती हैं। यहां नामकर्म निमित्त हेतु है और इन्द्रियां हेतुमान् कार्य हैं अथवा आत्मा ही अनन्त शक्तियोंको धार रहा परमेश्वर इंद्र है । उस आत्माका ज्ञापक लिंग इन्द्रिय है । इस निरुक्तिका भाष्य इस प्रकार है कि कर्म सम्बन्धसे मलिन हो रहे
और इसी कारण स्वयं अकेले ही अर्थोको ग्रहण करनेके लिये असमर्थ हो रहे आत्माको अर्थकी उपलब्धि करनेमें जो निमित्त हेतु है वह इन्द्रिय है, अर्थात्-उपभोक्ता आत्मा अनन्तशक्तियोंसे भरपूर है। स्वाभाविक अवस्था प्राप्त हो जानेपर पदार्थोके जाननेमें उसको किसी अन्य सहायककी अपेक्षा नहीं है। फिर भी कर्मोके आघात करके अधिक मालिन हो रहा आत्मा स्वयं अकेला पदार्थोकी उपलब्धि नहीं कर सकता है। यों उसके सहायक कारणोंको इन्द्रिय कहते हैं। सम्भव है स्वामी समन्तभद्र आचार्यकृत गन्धहस्तिमहाभाष्यमें यों इन्द्रियशब्दका निर्वचन किया गया होय । “ ऐतिह्यान्वेषका विद्वान्सो मार्गयन्तु”।
नन्वेवमात्मनोर्थज्ञानमिंद्रियलिंगादुपजायमानमनुमानं स्यात् । तच्चायुक्तं । लिंगस्यापरिज्ञानेनुमानानुदयात् । तस्यानुमानांतरात्परिज्ञानेऽनवस्थानुषंगादिति कश्चित् । तदसत् । भावेंद्रियस्योपयोगलक्षणस्य स्वसंविदितत्वात्तदवलंबिनोर्थज्ञानस्य सिद्धेः । न चैतदनुमानं परोक्षविशेषरूपं, विशदत्वेन देशतः प्रत्यक्षत्वविरोधात् । परोक्षसामान्यमन्यचु मुख्यतस्तदिष्टमेव परप्रत्ययापक्षस्य परोक्षत्ववचनात् । .
यहां कोई शंका उठाता है कि इस प्रकार तो आत्माके उत्पन्न हो रहा पदार्थोका ज्ञान तो इन्द्रिय नामक लिंगसे उत्पन्न होनेके कारण अनुमान हो जायगा । और वह मानना तो युक्त नहीं है। क्योंकि इन्द्रियां अतीन्द्रिय हैं। पौद्गलिक बाह्य निर्वृत्ति ही इन्द्रिय है जिसका कि इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। ज्ञापक हेतुका परिज्ञान नहीं होनेपर अनुमानकी उत्पत्ति नहीं होपाती है । यदि उस अतीन्द्रिय इन्द्रिय हेतुको पुनः साध्य बनाकर अनुमानान्तरसे परिज्ञान करोगे तब तो उस हेतुको भी जाननेके लिये तीसरे, चौथे आदि हेतुओंकी कल्पना करते करते अनवस्था दोषका प्रसंग होगा, यहांतक कोई कटाक्ष कर रहा है। आचार्य कहते हैं कि यह कथन प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि " लब्ध्युपयोगौ भावन्द्रियम् ” उपयोगस्वरूप भावइन्द्रियां स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रत्यक्ष कर ली जा चुकी हैं । अतः उन प्रत्यक्ष की जाचुकी इन्द्रियोंका जनकपनेसे अवलम्ब लेनेवाले पदार्थज्ञानकी सिद्धि हो जाती है । आत्मा और भावेन्द्रियां अभिन्न हैं । अतः पर्याय और पर्यायीकी भेद विवक्षा कर इन्द्रिय द्वारा हुआ अर्थज्ञान अनुमान नहीं कहा जा सकता है । वह विशद हो रहा प्रत्यक्ष है । जहां साध्यसे भिन्न मान लिये गये हेतुसे व्याप्तिस्मरणपूर्वक अविशद साध्य