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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके विग्रह गतिवाले जीवका संग्रह कर लिया जाता है । पहिला शरीर छूट चुका 1 है और दूसरा नोकर्म शरीर अभीतक गृहीत नहीं हुआ है, ऐसी बीचकी विग्रहगतीमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम विद्यम होनेसे लब्धिरूप इन्द्रियां हैं । इन्द्रियजन्य मति, श्रुतज्ञान भी हैं । अतः वह जीव भी एक इन्द्रिय धारपिन या दो इन्द्रिय धारकपनका अतिक्रमण नहीं कर पाता है । यदि विग्रहगतिमें इन्द्रियां न मानी " इन्द्रियोंसे रहित जायगी तो उस जीवको मुक्तपनेका प्रसंग हो जावेगा । " णवि इन्दियकरण जुदा तो सिद्ध भगवान् ही हैं। इन्द्रियसहितपन या त्रसस्थावरपनका ध्वन्स तो परमब्रह्म परमात्मा सिद्धोंमें ही है । तिस कारणसे उक्त पांच सूत्रोंकर के यहां सम्पूर्ण संसारी जीवोंका संग्रह हो जाता ही है । १३२ न कानिचिदिंद्रियाणि नियतानि संति यत्संबंधादेकेंद्रियादयो व्यवतिष्ठत इत्याशंकां निराकर्तुकामः सूरिरिदमाह । ग्यारह, किसीकी शंका है कि इन्द्रियां कितनी हैं ? यह कोई नियत व्यवस्था नहीं है । पांच, छह, इन्द्रियां मानी जा रहीं हैं अथवा कोई भी इन्द्रियां क्रमसे नियत नहीं हैं। जिनके कि सम्बन्धसे एक इन्द्रियवाले या दो इन्द्रियवाले आदिक जीव आगम अनुसार व्यवस्थित हो जावें ? इस प्रकार हुयी आशंकाका निराकरण करने के लिये अभिलाषा रख रहे श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्रको कहते हैं । पंचेंद्रियाणि ॥ १५ ॥ इन्द्रियां पांच ,, हैं अर्थात् - पहिले सूत्र में द्वीन्द्रियको आदि लेकर त्रसजीवोंका निर्देश किया था । इन्द्रियोंकी अंतिम संख्या नहीं बतलाई थी जिनको कि अधिक से अधिक धारण कर वहांतकके जीव " त्रस समझ लिये जांय ? अतः इन्द्रियोंकी संख्या के परिमाणको नियत करते हुये श्री उमास्वामी आचार्य पांच इन्द्रियोंका निरूपण करते हैं । वे स्पर्शन आदिके क्रमसे व्यवस्थित हो रही पांच हैं । १ संसारिणो जीवस्य संतीति वाक्यार्थः । किं पुनरिंद्रियं ? इंद्रेण कर्मणा सृष्टमिंद्रियं स्पर्शनादींद्रियनामकर्मोदयनिमित्तत्वात् । इंद्रस्यात्मनो लिंगमिंद्रियं इति वा कर्ममलीमसस्यात्मनः स्वयमर्थानुपलब्धुमसमर्थस्य हि यदर्थोपलब्धौ लिंगं निमित्तं तदिंद्रियमिति भाष्यते । " " संसारिणः इस पदकी अनुवृत्ति, कर संसारी जीवके पांच इन्द्रयां हो सकती हैं, इस प्रकार इस सूत्र वाक्यका अर्थ हो जाता है। यहां किसीका प्रश्न है कि फिर इन्द्रिय पदार्थ क्या है ? वैशेषिकोंने तो “ शब्देतरोद्भूतविशेषगुणानानाश्रयत्वे सति ज्ञानकारणमनः संयोगाश्रयत्वम् इन्द्रियत्वम् ” ऐसा लक्षण बांधा है। अब इस विषयमें जैन सिद्धान्त क्या है ? सो बताओ । श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर क हैं कि परमशक्तिशाली इन्द्र अर्थात् पौगलिक कर्म करके जो रची जाय वह इन्द्रिय है । यह " तेन
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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