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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विग्रह करो और समासवृत्तिका अर्थसमुदाय कर लो । जैसे कि “सर्व आदि शब्द सर्वनाम माने जाते हैं, यहां अकेले सर्व को कहकर सभी विश्व, उभ, उभय, आदिका संग्रह हो जाता है । " सर्वपद " छोड नहीं दिया जाता है। " जम्बूद्वीप लवणोदादयः " इस सूत्रमें भी ये ही उपाय करने पडेंगे । तेच प्रमाणतः सिद्धा एवेत्याह ।
तथा वे सजीव तो प्रमाणोंसे सिद्ध ही हो रहे हैं, इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कहते हैं ।
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त्रसाः पुनः समाख्याताः प्रसिद्धा द्वीन्द्रियादयः । इत्येवं पंचभिः सूत्रैः सर्वसंसारिसंग्रहः ॥ १ ॥
स्थावर जीवोंसे न्यारे फिर त्रसजीव तो भले प्रकार व्याख्यान किये जा चुके द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, आदिक प्रसिद्ध ही हैं । बालक, बालिका, भी दो इन्द्रियवाले लट, सीप, जोंक, आदिको जान रहे हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, इन तीन इन्द्रियोंको रखनेवाले चींटी, बिच्छू, खटमल, लीख, आ, दीमक, आदि प्रसिद्ध हैं । स्पर्शन, रसना, नाक, आंखे इन चार इन्द्रियोंके धारी भोंरा, पतंगा, मक्खी, बर्र, झींगुर, मकडी आदि विख्यात हैं । पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, ये सब पांचों इन्द्रियों को लिये हुये हैं । इनके कान भी विद्यमान हैं। यहांतक " संसारिणो मुक्ताश्च ," समनस्काऽमनस्काः, संसारिणस्त्रसस्थावराः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः, द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः, इस प्रकार पांच सूत्रों करके सम्पूर्ण संसारी जीवों का संग्रह सूत्रकारने कर लिया है । गुणस्थान या मार्गणाओं द्वारा किये गये भेद, प्रभेदोंका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है ।
विग्रहगत्यापन्नस्य संसारिणोऽसंग्रह इति चेन्न, तस्यापि सस्थावरनामकर्मोदयरहितस्यासंभवात् तद्वचनेन संगृहीतत्वात् । सोपि नैकेंद्रियत्वं द्वींद्रियादित्वं वातिक्रामति मुक्तत्वप्रसंगात् । ततो भवत्येव पंचभिः सूत्रैः सर्वसंसारिसंग्रहः ।
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कोई शंका करता है कि एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरके ग्रहण करनेके लिये हुयी विग्रहगतिको प्राप्त हो रहे संसारी जीवका संग्रह नहीं हो पाया है । क्योंकि इन्द्रियोंकी शक्ति पूर्णता या चार, छह, आदि प्राणोंकी प्राप्ति तो दूसरा शरीर ग्रहण कर चुकनेपर होगी। तभी त्रस या स्थावरका व्यवहार शोभता है । आचार्य कहते हैं कि यों नहीं कहना । कारण कि उस नवीन शरीरको ग्रहण करने के लिये उद्यम कर रहे कार्मणकाय योगवाले जीवके भी त्रस नामकर्म और स्थावरनामकर्मका उदय विद्यमान है । पूर्व शरीरका सम्बन्ध छूटते ही जीवके उत्तरभवकी आयुके उदयके साथ त्रस या स्थावर इनमें से किसी भी एक प्रकृतिका उदय अवश्य हो जाता है । त्रस और स्थावर नामकर्मके उदयसे रहित हो रहे किसी भी संसारी जीवका जगत् में असम्भव है । अतः उस त्रस या स्थावर के वचन करके