________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
१३५
सूत्रकार द्वारा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कान, इन पांच इन्द्रियका कथन कर चुकने पर कोई विचारशाली पुरुष अपने मनमें खटका उत्पन्न करता है कि छट्ठी इन्द्रिय मन भी तो है, आचार्य कहते हैं कि सो नहीं समझना । क्योंकि पांच इन्द्रियोंसे विधर्मापन होनेके कारण मनको इन्द्रिय भिन्न अनिन्द्रियपना सिद्ध है। पांच इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द ये नियत हो रहे हैं । किन्तु फिर मनका विषय कोई नियत नहीं है । सभी विषयोंमें मनकी प्रवृत्ति योग्यतानुसार मानी गयी है। इस कारण “ नोइन्द्रियं अनिन्द्रियं या न इन्द्रियं " यों इन्द्रियका ईषत् प्रतिषेध करनेसे उन इन्द्रियों का विधर्मपना मनमें प्रसिद्ध हो ही जाता है। यदि कोई यों कहे कि अर्थकी उपलब्धि करनेमें कर्त्ता आत्माका करण होनेसे मन छठा इन्द्रिय मान लेना चाहिये । आचार्य कहते हैं वह करणत्व या इन्द्रियलिंगत्व हेतु तो यहां धूम, शद्ब, आदिक करके व्यभिचार दोष हो जानेसे आदर नहीं पायेंगे। देखिये, वे धूम आदिक भी आत्माको अर्थकी उपलब्धि करनेमें साधकतम हो रहे करण हैं और ज्ञापक हेतु भी हैं । किन्तु वे इन्द्रिय नहीं हैं । हेतु रह गया साध्य नहीं रहा अतः व्यभिचारदोष आया । फिर भी कोई कहें कि बुद्धि और अहंकारको इन्द्रियपना होनेसे पांच ही इन्द्रियां नहीं रहीं, सात हो गयीं, ग्रन्थकार कहते हैं कि यों तो नहीं समझ बैठना । कारण कि आत्मा के परिणाम हो रहे वे बुद्धि और अहंकार तो इन्द्रिय और अनिन्द्रियके फल हैं । विचारमें प्राप्त हो रहीं इन्द्रियां जड होती हुयीं, करण हैं । य महान् अन्तर है ।
1
वाक्पाणिपादपायूपस्थानां कर्मेद्रियत्वान्न पंचैवेत्यप्ययुक्तं, तेषां स्पर्शनांतर्भावात् । तत्रा नंतर्भावेतिप्रसंगात् ।
कपिल मतानुयायीकी शंका है कि वचनक्रियाका निमित्त हो रही वाक् इन्द्रिय, हाथ, पांव, गुदास्थान, जननेन्द्रिय ये पांच कर्मेन्द्रिय भी हैं । अतः पांच ही इन्द्रियां नहीं हुयीं, ग्यारह हो गयीं । श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि सांख्योंका यह कहना भी अयुक्त है । क्योंकि उन कर्मेन्द्रियों का स्पर्शन इन्द्रियमें अन्तर्भाव हो जाता है । हाथ, पग, आदि सब त्वचाके अवयव हैं । यदि हाथ, पैर, आदिका उस त्वचा इन्द्रियमें अन्तर्भाव नहीं करोगे तो अतिप्रसंग हो जायगा अर्थात् कर्म यानी क्रियाओं को करनेवाले ओठ, अंगुली, नितंब, सिर, भोयें, ग्रीवा, आदिको भी पृथक इन्द्रियां मानना पडेगा, जो कि हम तुम किसीको भी इष्ट नहीं है 1
पंचानामेव बुद्धिसाधनत्वाच्चेंद्रियाणां पांचविध्यनिर्णयः कर्तव्यः स्पर्शादिज्ञानकार्याणि हि तानि । तथाहि - स्पर्शादिज्ञानानि करणसाधनानि क्रियात्वादिद्रियक्रियावत् । स्वसंवित्ति - क्रिययानेकांत इति चेन्न, तस्या अपि समनस्कानामंतःकरणकारणत्वात् परेषां स्वशक्तिविशेषकरणत्वात् । न चैकत्रात्मनि कर्तृकरणरूपविरोधः प्रतीतिसिद्धत्वादिति निरूपितं प्राक् । ततः स्पर्शादिज्ञानंभ्यः कार्यविशेषेभ्यः पंचभ्यः पंचेन्द्रियाणीति सामर्थ्यात् मनोनिंद्रियं षष्ठमिति सूत्रकारेण निवेदितं भवति। तेनैतैर्व्यवस्थितैर्योगो द्वित्रिचतुःपंचेंद्रियाः संज्ञिनश्च त्रसा इति निश्चीयते ।