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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके उत्तरोत्तर घटते घटते ज्ञान भी कहीं न कहीं अन्तिम घटीको पहुंच जाता है । ऐसे इस अनुमानसे जहां कहीं जीवोंमें उस ज्ञानकी न्यूनताका अन्तिम आधार है । वे ही हम स्याद्वादियोंके यहां एक स्पर्शन इन्द्रियवाले स्थावर जीव माने गये हैं । इस प्रकार अनुमानस्वरूप युक्तिकरके स्थावर जीवोंके सद्भावकी सम्भावना की जा चुकी है । ननु च भस्मादावनात्मन्येव विज्ञानस्यात्यंतिकापकर्षस्य सिद्धर्न स्थावरसिद्धिरिति चेत्र, स्वाश्रय एव ज्ञानापकर्षदर्शनात् अनात्मनि तस्यासंभवादेव हान्यनुपपत्तेः । प्रध्वंसो हि हानिः सत एवोपपद्यते नासतोनुत्पन्नस्य वंध्यापुत्रवत् । __ उक्त अनुमान द्वारा स्थावर जीवों की सिद्धि कर रहे आचार्यके ऊपर स्थावर जीवोंको नहीं माननेवाले किसी पण्डितकी ओरसे पुनः स्वपक्षका अवधारण है कि जीवतत्त्वसे भिन्न हो रहे जड, भस्म, पीतल, ईट, आदि पदार्थमें ही विज्ञानके अत्यन्त रूपसे होनेवाले अपकर्षकी सिद्धि हो रही है। अतः स्थावर जीवोंकी सिद्धि न हो सकी । मन्दबुद्धि जीवोंमें ज्ञानकी कमी होते होते जड राखमें सर्वथा ज्ञानका अत्यन्त अभाव हो गया है। अपकर्षका बढिया आधार जब मिल गया है तो उस अनुमानसे भला स्थावर जीवोंकी सिद्धि कहां हुयी ? आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि ज्ञानके निज आश्रयमें ही ज्ञानका अपकर्ष हो रहा देखा जाता है । आत्मतत्त्वसे सर्वथा भिन्न हो रहे जडमें उस ज्ञानका असम्भव हो जानेसे ही हानिकी सिद्धि नहीं बन सकती है। हानिका अर्थ यहां नियमसे अच्छा ध्वंस हो जाना है। वह ध्वंस तो प्रतियोगीकी सत्तावाले पदार्थका ही बन सकता है। जो असत् पदार्थ है या उत्पन्न ही नहीं हुआ है, बन्ध्यापुत्रके समान, उस पदार्थकी हानि नहीं हो सकती है। रोगकी हानि जीवके बन सकती है, जडके नहीं । जहां प्रतियोगीका सद्भाव है वहां ही उसका ध्वंस है ।वैशेषिकोंने भी वंसका प्रतियोगीके समवायी देशमें नियत होकर रहना माना है। घटका बंस कपालोंमें और पटका ध्वंस तन्तुओंमें ठहरता है । भस्ममें तो ज्ञानका अत्यन्ताभाव है और हम ज्ञानके ध्वंस या न्यूनपनको साध रहे हैं। वह एकेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जावेगा । किसी मनुष्यको ही निर्धन या अपढ कहा जाता है, पत्थर या डेलको नहीं । कचिदात्मन्यप्यत्यंतनाशो ज्ञानस्यास्तीति चेन्न, सतो वस्तुन उत्पत्तिविनाशानुपपत्तेः । पुनः कोई वैशेषिकका पक्ष लेकर कहता है कि भस्ममें नहीं सही, किन्तु किसी किसी आत्मा ( मुक्तजीव') में भी तो ज्ञानका अत्यन्त रूपसे नाश विद्यमान है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंके अनादि अनन्त सद्रूप हो रही वस्तुके उत्पत्ति और विनाश बन नहीं सकते हैं। अर्थात्- " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " " नैवासतो जन्म सतो न नाशो"। जैसे पुद्गल द्रव्यमें रूप, रस, आदि गुण अनादि कालसे अनन्त कालतक विद्यमान रहते हैं, कोई नया गुण उपजता नहीं है. और न किसी सत् गुण का विनाश होता है। यदि नया गुण उपजने लगे तो जड
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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