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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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द्रव्यमें ज्ञान, सुख, गुण भी उपज जायेंगे । ऐसी दशामें जड और चेतनका विभाग करना अशक्य हो जायगा । तथा यदि विद्यमान गुणोंका विनाश होने लगे तो किसी दिन संपूर्ण गुणोंका अभाव हो जानेसे वस्तुका ही अभाव हो जायगा । गुणोंका समुदाय ही तो द्रव्य है। हां, विद्यमान हो रहे गुणोंकी पर्यायोमें अविभाग प्रतिच्छेदोंकी न्यूनता, अधिकता, या विभावपरिणाम होते रहते हैं। तभी तो ज्ञानगुणकी अत्यन्त हानि होते हुये भी सूक्ष्मनिगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जीवमें अक्षरके अनन्तवें भाग नित्य प्रकाशनेवाला निरावरण ज्ञान माना गया है। मनुष्य भी कितना ही पागल, मूर्छित, मूर्ख, पौंगा, दुःखित, क्यों न हो जावे, उसमें थोडा ज्ञान तो अवश्य ही बना रहता है । पण्डिताईके ज्ञानोंका ध्वंस मूर्खता पूर्वक हुये ज्ञानोंके विद्यमान होनेपर पाया जाता है । एकेन्द्रिय दशामें सामान्य अत्यल्पज्ञान होनेपर विशिष्ट ज्ञानोंकी हानि मानी जाती है, ज्ञानका सर्वथा नाश कहीं नहीं हो पाता है ।
कर्मणां कथमत्यंतविनाश इति चेत्, क एवमाह ? तेषामत्यंतविनाश इति । कर्मरूपाणां हि पुद्गलानामकर्मरूपतापत्तिर्विनाशः सुवर्णस्य कटकाकारस्याकटकरूपतापत्तिवत् । ततो गगनपरिमाणादारभ्यापकृष्यमाणविशेष परिमाणं यथा परमाणो परमापकर्षपर्यतप्राप्त सिद्धं तथा ज्ञानमपि केवलादारभ्यापकृष्यमाणविशेषमेकेंद्रियेषु परमापकर्षपर्यंतप्राप्तमवसीयते । इति युक्तिमत्पृथिवीकायिकादिस्थावरजीवप्रतिपादनं ।।
पूर्वपक्षवाला कहता है कि बताओ कर्मोका अत्यन्तरूपसे विनाश भला कैसे हो जाता है ? मुक्त जीवोंमें भी ज्ञानके समान थोडे, बहुत, कर्म विद्यमान रहे आयेंगे । आप जैनोंने अभी कहा था कि सत्का विनाश नहीं हो पाता है । यों कहनेपर आचार्य उत्तर देते हैं कि कौन अविचारी इस प्रकार कह रहा है कि उन कर्मोंका अयंतरूपसे विनाश हो जाता है कि कर्मस्वरूप हो रहे पुद्गलोंकी अकर्मस्वरूपपने करके प्राप्ति हो जाना ही विनाश है । जैसे कि कडोंके आकारको धारनेवाले सोनेकी कडे रहित हो रहे कुन्डल, केयूर, आदि अलंकाररूपसे प्राप्ति हो जाना ही सोनेका ध्वंस माना जाता है। सोनेका समूलचूल नाश नहीं होता है । मैले वस्त्रको निर्मूल कर देनेपर मलकी पानीमें कीचडरूप अवस्थासे स्थिति बनी रहती है । साबन, तेजाब, आग, किसीसे भी शुद्धि करो, जगत् से मल उठा दिया जाय, ऐसा मलका सत्यानाश कभी नहीं हो सकता है। आत्मासे, सम्बन्ध छूटकर कर्म भी अन्य पुद्गलकी अवस्थामें अन्यत्र बने रहते हैं। अर्थात्-मुक्तिके लक्षणमें कर्मोंका देशसे देशान्तर हो जानारूप विभाग और कर्म अवस्थासे अकर्म अवस्था हो जाना अभीष्ट है । तिस कारण सबसे बड़े आकाशके परिमाणसे प्रारम्भकर कमती कमती हो रही विशेषताको लिये हुये परिमाण जैसे परमाणुमें उत्कृष्टरूपसे अपकर्षके पर्यतको प्राप्त हो चुका सिद्ध है, उसी प्रकार ज्ञान भी केवलज्ञानसे प्रारम्भ कर विशेषविशेषरूपसे घट रहा संता एकेन्द्रिय जीवोंमें सबसे बढिया हीनताके पर्यन्तको प्राप्त हो चुका जान लिया जाता है । इस प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, आदि स्थावर जीवोंका सूत्रकार द्वारा प्रतिपादन करना युक्तियोंसे सहित है।
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