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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः कोई शारीरिक क्रिया, वचनव्यवहार, आदिक नहीं हैं । किन्तु वे चेतन हैं । अतः हेतुके ठहर जानेपर साध्यकी स्थिति नहीं होनेसे तुम्हारा हेतु व्याभिचारी हो जाता है । उस सोते हुये या मूर्छित हो रहे को भी पक्ष कोटिमें कर लेना तो उचित नहीं है। क्योंकि समाधि या ध्यानमें स्थित हो रहे जीवकरके व्यभिचार आ जावेगा । अतः प्रतिज्ञास्वरूप पक्षकी प्रमाणोंसे बाधा हो जानेका प्रसंग होगा । ऐसी दशामें तुम्हारा हेतु बाधित भी बन बैठेगा । भावार्थ-सोते हुये या मूर्छित पुरुषको भी यदि व्यापार आदि नहीं होनेसे अचेतन मान लिया जायगा तो भी ध्यान लगाकर बैठे हुये पुरुषसे व्याभिचार दोष तदवस्थ रहेगा । सोते हुये पुरुषको मरा हुआ कहना बाधित है । दूसरी बात यह है कि सांख्यमतियोंके यहां प्रकृतिका संसर्ग छूट जानेसे व्यापार करना, बोलना, आदि क्रियाओसे छूट चुके मुक्तजीव करके व्यभिचार आता है । अर्थात्-वैशेषिक भले ही मुक्त अवस्थामें जीवको अचेतन कह दे, किन्तु कपिलमतके अनुयायी तो मुक्तजीवोंको बहुत अच्छा चेतन कह रहे हैं । वहां हेतुके रह जानेपर भी अचेतनपना साध्य नहीं है । विपक्षमें हेतुका वर्तजाना व्यभिचार है। ___ प्रत्यागमो बाधक इति चेन्न, तस्याप्रमाणत्वापादनात् स्याद्वादस्य प्रमाणभूतस्य व्यवस्थापनात् । तदेवमागमात्सुनिर्बाधात् पृथिवीप्रमुखाः स्थावराः पाणिनो बोद्धव्याः।। यदि कोई यों कहे कि जैनोंके आगमसे प्रतिकूल हो रहा दूसरा चार्वाक आदिका आगम उस जिनागमका बाधक है, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उस स्थावर जीवोंका निषेध करनेवाले आगमको अप्रमाणताका अपादान किया गया है । अप्रमाणसे प्रमाणको कोई ठेस नहीं पहुंच पाती है । हां, स्याद्वाद सिद्धान्तको ही प्रमाणभूत होनेकी व्यवस्था पूर्वप्रकरणोंमें कर दी गई है। तिस कारण इस प्रकार भले ढंगपूर्वक बाधाओंसे रहित हो रहे आगमप्रमाणसे पृथिवी, आदिक स्थावर प्राणी समझ लेनी चाहिये । सुखपूर्वक ग्रहणका हेतु होनेसे तथा मोटी मूर्ति होनेसे अथवा भोजन, गृह, वस्त्र, अलंकार, आदि रूप करके बहुत उपकार करनेवाली होनेसे पांचों स्थावरोंमें पृथिवीको प्रमुख माना गया है। उसके अनन्तर जल, तेज, वायु, और वनस्पतिका वचन करना भी साभिप्राय है। __ युक्तेश्च, ज्ञानं कचिदात्मनि परमाऽपकर्षमायाति अपकृष्यमाणविशेषत्वात् परिमाणवदित्यतो यत्र तदपकर्षपर्यंतस्तेऽस्माकमेकेंद्रियः स्थावरा एव युक्त्या संभाविताः । तथा युक्तिसे भी स्थावर जीवोंको समझ लिया जाता है । सुन लीजिये। ज्ञान ( पक्ष ) किसी न किसी आत्मामें अत्यधिक अपकर्ष ( हीनता ) को प्राप्त हो जाता है ( साध्य ) विशेष रूपसे कमती कमती हो रहा होनेसे ( हेतु ) परिमाणके समान (अन्वयदृष्टान्त) अर्थात्-आकाश, लोक, सुमेरुपर्वत, सम्मेदशिखर, गृह, घर, नारियल, वेल, वेर, कालीमिरच, पोस्त, आदिमें उत्तरोत्तर घट रहा परिमाण जैसे परमाणुमें पहुंचकर अन्तिम अपकर्षको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार केवलज्ञान, श्रुतज्ञान, आचार्यका ज्ञान, शास्त्रीका ज्ञान, साधारण पण्डितका ज्ञान, पशु, पक्षी, पतंग, कीट, इनका ज्ञान यों
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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