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________________ १२६ तत्त्वार्थ लोकवार्त जीव हैं । किन्तु मिट्टी या जल ही जिन जीवोंका शरीर है वे स्थावर जीव हैं । एक मिट्टीकी छोटी डेली लाखों करोडों वस्तुतः असंख्याते जीवोंका औदारिक शरीर पिण्ड है । इसी प्रकार एक जलकी बूंद भी असंख्य जलकायके जीवोंके ग्रहण किये हुये शरीर हैं । अग्नि, वायु, वनस्पति के शरीरों को भी अनेक एकेंद्रिय जीवने ग्रहण कर रक्खा है । घनाङ्गुलके संख्यातवें भाग या असंख्यातवें भाग एक जीत्रकी अवगाहना है। हां, वनस्पतिजीव घास वृक्ष आदि थोडेसे तो संख्यात घनाङ्गुल प्रमाण भी हैं । किन्तु बहुभाग घनाङ्गुलके असंख्यातवें या संख्यातवें भाग छोटी अवगाहनाबाले हैं । संति पृथिवीकायिकादयो जीवा इत्यागमात् पृथिवीकायिकादिसिद्धिः । कुतस्तदागमस्य प्रामाण्यनिश्चय इति चेत्, सर्वथा बाधकरहितत्वात् । न ह्यस्य प्रत्यक्षं बाधकं तदविषयत्वात् । "" उक्त कारिकाका विवरण यों है कि " पृथिवीकायिक, जलकायिक, आदि जीव विद्यमान हैं " इस प्रकारके आगमवाक्यसे पृथिवीकायिक, आदि जीवों की अच्छी सिद्धि हो जाती है । कोई प्रश्न करता है कि उस आगमको प्रमाणपनेका निश्चय कैसे किया जाय ? जिसमें कि पृथिवी का आ जीवोंका सद्भाव माना गया है । यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि सभी प्रकार बाधक प्रमाणों का रहितपना होनेसे आप्त पुरुष करके उपज्ञ हो रहे आगमका प्रमाणपना जान लिया जाता है । देखिये, “ सुहुमणिवातेआभूवाते आपुणिपदिदिं इदरं । " पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूल सुहमपत्तेया " " पुढवी आऊतेऊवाऊ कम्मोदयेण तत्त्थेव, णियवण्णच उक्कजुदो ताणं देहो हवे णियमा ” इत्यादिक इन आगम वाक्यों या इनसे भी प्राचीन आर्ष ग्रन्थोंको बाधा देनेवाला प्रत्यक्षप्रमाण तो नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण उन अतीन्द्रिय पदार्थोंको विषय नहीं करता है। जो प्रमाण जिस विषय में नहीं चलता है वह उसका साधक या बाधक नहीं समझा जाता है। जो ग्रामीण भोला किसान वैद्य विद्याको नहीं जानता है, उसमें उसका सपक्ष या विपक्ष रूपसे टांग अडाना अनुचित है । पृथिव्यादयो अचेतना एव व्यापारव्याहाररहितत्वाद्भस्मादिवत् इत्यनुमानं बाधकमिति चेन्न, अस्य सुषुप्तादिनानेकांतात् । तस्यापि पक्षीकरणमयुक्तं समाधिस्थेनानेकांतात्, पक्षस्य प्रमाणबाधानुषंगात् । सांख्यस्य मुक्तात्मना व्यभिचारात् । कोई कटाक्ष कर रहा है कि पृथिवी, जल, आदिक ( पक्ष ) अचेतन ही हैं ( साध्य )। क्योंकि वे शारीरिक व्यापार करना, बोलना, विचारना, इष्टमें प्रवर्तना, अनिष्टसे निवृत्त हो जाना, काठ, आदिके समान आदि क्रियाओंसे रहित हैं, ( हेतु ) भस्म, रेता, उष्णजल, सूखा ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकारका अनुमानप्रमाण तुम्हारे आगमका बाधक है । आचार्य कहते हैं कि यह मूर्छाप्राप्त जीव, मूच्छित मनुष्य के तो न कहना। क्योंकि इस अनुमानमें कहे गये हेतुका अचेत सो रहे मनुष्य या अण्डस्थ जीव, आदि करके व्यभिचार दोष आता है । अर्थात् निर्भर सो रहे या
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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