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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके यदि अनेक व्यापक आत्माओंको माननेवाले नैयायिक यों कहें कि एक ही व्यापक आत्माके माननेपर तो नाना शरीररूपी उपाधियोंमें आमस्थ होकर समवाय सम्बन्धसे ठहर रहे सुख, दुःख, द्वेष, प्रेम, शयन, जागरण, आदिकी युगपत् सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि विरोध है । अनेक आत्माओं के माननेपर तो किसीमें सुख है, अन्य जीवमें दुःख है, तीसरा सोता है, चौथा जागता है, इत्यादि अनेक कार्य सब जाते हैं । किन्तु एक ही आत्मामें व्यापक मान लेनेपर भी एक साथ विरुद्ध कार्य नहीं हो सकते हैं, यों कहनेपर तो थोडी देरके लिये विनोदपूर्वक एक ही आत्माकी पुष्टि करनेवाले आचार्य कहते हैं कि तब तो अकेले आकाशमें भी एक ही साथ अनेक नगाडे, ढोल, तुरई, आदि उपाधियोंमें अवछिन्न हो रहे आकाशमें समवायको धारनेवाले वितत, घन, सुषिर, निषाद, आदि शब्दोंकी असिद्धि हो जाने ( सिद्धि नहीं हो सकने ) का प्रसंग होगा । उस विरोध और इस विरोधका कोई अन्तर नहीं है । अर्थात्-एक आकाशमें यदि भिन्न जातिके मन्द, तीक्ष्ण, कर्कश, मृदु, पंचम, मध्यम, आदि अनेक शब्दोंको मान लोगे तो उसी प्रकार एक ही आत्मामें नाना शरीरोंकी उपाधिके भेदसे सुख, दुःख, आदि होना बन जायगा। यदि एक आत्मामें भिन्न जातिके सुख, दुःख, आदिकी सिद्धिका विरोध मानो तो एक आकाशमें नाना, मृदंग, शतरंगी ( सारंगी ) आदि उपाधियों द्वारा वितत, घन, आदि शद्रोंकी सिद्धिका भी वैसा ही विरोध बन बैठेगा । यदि वैशेषिक या नैयायिक यों कहें कि तिस प्रकारके वितत आदि शोंके कारण हो रहे वादित्र, बाजे, तार, चर्म, आदि पदार्थोंके भेदसे हुये नाना शद्वोंको अकेला आकाश धार लेता है । अतः उन अनेक शब्दोंकी आकाशमें असिद्धि नहीं है । यों कहनेपर आचार्य कहते हैं कि सुख, दुःख, आदिके न्यारे न्यारे कारण बन रहे पदार्थोके भेदसे एक साथ एक आत्मामें भी सुख, दुःख, आदि हो जायेंगे, उनकी भी आसिद्धि नहीं होने पावे | उपाधिभेदसे एक साथ अनेक समवेत गुणों को धार लेनेकी अपेक्षा आकाश और आत्मामें कोई विशेषता नहीं है । यदि तुम वैशेषिक यों कहो कि कोई पण्डित है, अन्य ग्रामीण मूर्ख है, एक नागरिक धनिक है, चौथा अपव्ययी दरिद्र हो गया है, एक सराग है, दूसरा वीतराग है, कोई श्रृंगार रसका अनुरागी है, दूसरा शांतिरसमें निमग्न है, एक दाता है, दूसरा पात्र है, कोई सुखी है, कोई दुःखी है, इत्यादिक विरुद्ध धर्मोके आरूढ हो जानेसे जीव तत्त्वको अनेकपना साध दिया जाता है । यों कहनेपर तो आक्षेपकार हम जैन भी कह देंगे कि तिस ही कारणसे आकाश द्रव्य भी नाना हो जाओ .। आकाशमें भी अनेक विरुद्ध धर्मोका अध्यास हो रहा है । कहीं मन्द शब्द है, कहीं तीव्र शब्द है, कचित् छोटा, बडा, शद्ध गूंज रहा है। यदि वैशेषिक यों कहे कि एक अखण्ड आकाश भी उपचारसे भिन्न भिन्न प्रदेश मान लिये जाते हैं । अतः आकाशके किसी प्रदेशमें ढोल का शब्द है अन्य प्रदेशमें तूतीका शब्द है। तीसरे प्रदेशमें घन हैं । चौथे प्रदेशमें वितत है । यों कहनेपर तो हम जैन कह देंगे कि तिस ही कारणसे आत्मामें भी कोई दोष नहीं आता है, अर्थात्-सर्वव्यापक एक ही अखण्ड आत्माके उपचारसे
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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