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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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स्थावराः एव सर्वे जीवाः परममहत्त्वेन निष्क्रियाणां चलनासंभवात्त्रसत्वानुपपत्तेरिति त्रसनिन्हत्रस्तावन्न युक्तः, स्वयमिष्टानां जीवतत्वप्रभेदानां व्यवस्थानाप्रसिद्धिप्रसंगात् सर्वगतात्मन्येकत्रैव नानात्मकार्यपरिसमाप्तिः । सकृन्नानात्मनः संयोगो हि नानात्मकार्य तचैकाप प्रयुज्यते नभसि नानाघटादिसंयोगवत् । एतेन युगपन्नानाशरीरेंद्रियसंयोगः प्रतिपादितः ।
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वैशेषिक या किसी अन्य विद्वान्का कुत्सित पक्ष है कि जगत् के सम्पूर्ण जीव स्थावर ही हैं । क्योंकि परम महा परिणाम होनेके कारण क्रियारहित हो रहे व्यापक जीवोंका देश देशान्तर में चलाय मान होना असम्भव है । जो जीव यहां, वहां, नहीं चल सकता है, उसको सपना नहीं बन सकता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार त्रसजीवोंका अपलाप ( निषेध ) कर देना तो युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि यों तो स्वयं उनको अभीष्ट हो रहे जीवतत्त्व के प्रभेदों की व्यवस्था के अप्रसिद्ध हो जानेका प्रसंग आवेगा, जो कि इष्ट नहीं पडेगा । अर्थात् – आत्माको व्यापक मान लेनेपर फिर अनेक जीवोंके माननेकी व्यवस्था नहीं बन सकती है । सर्वस्थानोंपर प्राप्त होकर व्याप्त हो रहे एक ही आत्मामें अनेक आत्मा के कार्यो की परिपूर्ण रूपसे समाप्ति हो जायगी । अतः अनेक आत्माओं की कल्पना करना व्यर्थ पडेगा । देखिये एक ही वारमें अनेक आत्माओं का संयोग हो जाना ही तो अनेक आत्माओंका कार्य माना गया है। किंतु वह कार्य तो एक व्यापक आत्मामें भी प्रयुक्त किया जा सकता है । जैसे कि एक व्यापक आकाशमें अनेक घट, पट, आदि पदार्थों का संयोग होना युक्तिघटित हो जाता है, इस उक्त कथन करके ग्रन्थकारने यह भी समझा दिया है कि व्यापक एक आत्मामें युगपत् अनेक शरीर और अनेक इन्द्रियों का संयोग हो जाना भी बन जाता है, ताकि वैशेषिक यों न कह सके कि एक आत्मा के माननेपर अनेक शरीर और नाना इन्द्रियोंका एक साथ संयोग कैसे हो सकेगा ? | सुदक्ष ग्रन्थकार स्थावरजीवों का ही एकान्त माननेवाले पण्डितके सन्मुख व्यापक एक आत्माका ही आपादन कर अभीष्ट अर्थको मनवाना चाहते हैं । अन्य मतका खण्डन और अपने मतका स्थापन इसके कई मार्ग हैं । सभी स्थलोंपर एक ही औषधि कार्यको नहीं साधती है 1
युगपन्नानाशरीरेष्वात्मसमवायिनां सुखदुःखादीनामनुपपत्तिर्विरोधात् इति चेत्, युगपन्नानाभेर्यादिष्वाकाशसमवायिनां विततादिशब्दानामनुपपत्तिप्रसंगात् तद्विरोधस्याविशेषात् । तथाविधशब्दकारणभेदान्न तदनुपपत्तिरिति चेत् सुखादिकारणभेदात्तदनुपपत्तिरप्येकत्रात्मनि माभूत् विशेषाभावात् । विरुद्धधर्मार्थ्यासादात्मनो नानात्वमिति चेत्, तत एवाकाशनानात्वमस्तु । प्रदेशभेदोपचाराददोष इति चेत्, तत एवात्मन्यदोषः । जननमरणादिनियमपि सर्वगतात्मवादिनां नात्मवहुत्वं साधयेत्, एकत्रापि तदुपपतेर्घटाकाशादिजननविनाशवत् । नहि घटाकाशस्योत्पत्तौ पटाद्याकाशस्योत्पत्तिरेव तदा विनाशस्यापि दर्शनात् । विनाशे वा न विनाश एव जननस्यापि तदोपलंभात् स्थितौ वा न स्थितिरेव विनाशोत्पादयोरपि तदा समीक्षणात् ।