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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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काठका ऊपरला, नीचला भाग जान लिया जाता है । बात यह है कि जगत्वर्त्ती सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिक्षण आश्चर्यकारक परिणतियों का सम्पादन कर रहे हैं । न जाने किस परिणति से अचिन्त्य निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धद्वारा कहां जड या चेतनद्वारा कैसा कैसा भाव उपज बैठे हैं । यह पक्का सिद्धान्त है कि कारणके विना कार्य नहीं होता है । साइन्स, न्याय, और गणित इसी राद्धान्तपर अवलम्बित हैं। जिनशासनमें कार्यकारणभावकी पोल नहीं चलती है । अतः उन ज्ञान हो जानेरूप कार्योंमें मात्र तत्त्वोंके परिणाम कारण हैं, इन्द्रियां नहीं । माताके उदरमें बच्चा बन जाता है, इतने ही से उस पेटको विश्वकर्मा नहीं कह दिया जाता है । इसी प्रकार वृक्षोंमें अन्तरंग, बहिरंग, कारणों द्वारा हुये परिणामोंके कार्योको चक्षुः, रसना, कान, इन इन्द्रियोंका कर्त्तव्य नहीं गढलेना चाहिये । पांच स्थावर काय जीवों के एक ही स्पर्शन इन्द्रिय है, अधिक नहीं । समें दो आदिक इन्द्रियां हैं। गिडारे, दीमकें अपने रहने के स्थानों को बनां लेती हैं। चींटियां योग्य ऋतुओं में धान्यका संग्रह कर लेतीं हैं । संचित धान्य बिगडे नहीं इसलिये वे धान्यको बाहर निकालकर उचित घाम, वायु, चन्द्रिका, लगा देती है । पुनः भीतर घर देती हैं। बर्रे, भोरी, मधु, मक्खी, ये अपने छतोंको बनाती हैं। बच्चोंके शरीर के उपयोगी पुद्गल पिण्ड या झींगुर, लटों को लाकर स्वकीय जातिके प्राणियों को बनालेती हैं । भिन्न भिन्न ऋतुओं में एक स्थानको छोड़कर अन्य उपयोगी स्थान पर पहुंच जाती हैं । पुनः उसी स्थानपर आजातीं हैं। मकडी चालाकीसे जीवोंको फसाने के लिये जाला पूरती है । एक प्रकारका छोटासा कीट रेतमें चारों ओरसे लुढकाऊ गोल गड्ढा बनाकर उसमें छिपा रहता है और रपटकर खड्ढे में गिर पडे, चीटियां, गुबरीले, आदिको भक्षण कर लेता है । बनकी झाडियोंमें या किन्ही किन्ही ज्वार, बाजरा या मेंदी के वृक्षोंपर एक मायाचारी, भयालु कीट विशेष अपने चारों ओर गाढे चेंपवाले फसुकुरुको फैलाकर मध्यमें बैठ जाता है । और यहां वहां से आकर फसूकुरुर्मे चुपटकर फंसगये कीट पतंगोंको खाजाता है । कोई वृक्ष भी कीट, पतंग, या पक्षियोंको पकडकर फसा लेते हैं । ये सब कार्य विचारनेवाले मनके द्वारा होनेवाले कार्यसारिखे दखिते हैं । किन्तु उक्त कीट पतंगोंके मन नहीं माना गया है । बात यह है कि ज्ञान भी बहुत बड़े बड़े कार्यो को साधता है। कीट पतंगों के ज्ञान, इच्छा, राग, द्वेष, कषायें विद्यमान हैं। उनके द्वारा उक्त कार्य क्या इनसे भी अत्यधिक विस्मयकारक कार्य हो सकते हैं । जैन न्यायशास्त्रमें " हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्" इस सूत्र अनुसार हितकी प्राप्ति कर लेना और अहितका परिहार करते रहना ज्ञानका ही कार्य बताया गया है । जड कर्म भी बहुत कार्य कर देते हैं । शरीरमें प्रविष्ट होकर औषधि वहां ऊधम मचा देती है । आम्र रस रेचक है । दूध भी रेचक है । किन्तु आम खाकर दूध पीलिया जाय तो मल थंब जाता है । खरबूजा रचन करता है, सरबत भी मलको पतला कर देता है । हां, खरबूजा खाकर बूरेका सरबत पीलेनेसे पाचन हो जाता है। आत्माकी अनेक क्रियाओं में जडकर्मका भी हाथ है ! यहां प्रकरण में इतना ही कहना है कि अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर जीवोंकी व्यवस्था प्रसिद्ध हो रही है
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