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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १२१ प्रदेश भेदों को मानकर कहीं सुख, अन्यत्र दुःख, क्वचित् मूर्खता, कहीं कहीं पण्डिताई इन धर्मो सम्बन्ध बन जाता है। आत्माको सर्वगत कहनेवाले वादियोंके यहां जन्म लेना, मरना, बंध जाना, मुक्त हो जाना, आदि नियम भी आत्मा के बहुतपनको नहीं साथ सकेंगे। क्योंकि एक भी आत्मामें उपाधिओं के भेद से उन जन्म लेना, मरण करना, आदिकी सिद्धि बन जाती है, जैसे कि एक आत्मामें घटाकाशका उपज जाना और कपाल आकाश या पटाकाशका विनाश होना युगपत् सिद्ध हो जाता है । घट उपाध नापे गये आकाशकी उत्पत्ति हो जानेपर पट उपाधिवाले आकाश या कपाल उपाधिधारी आकाशकी भी उत्पत्ति ही होवे, ऐसा कोई नियम नहीं है । उस समय एक उपाधिवाले आकाशकी उत्पत्ति होनेपर अन्य उपाधिवाले आकाश के विनाशका भी दर्शन हो रहा है अथवा किसी विशेषण से अवच्छिन्न हो रहे आकाशका विनाश हो जानेपर सभी विशेषणोंवाले अन्य अन्य आकाशका भी विनाश ही हो जाय ऐसा नहीं है । किन्तु उस विनाश होने के समय अन्य कार्यावच्छिन्न आकाशकी उत्पत्ति भी देखी जा रही है । किसी उपाधिधारी आकाशकी स्थिति होनेपर सभी उपाधिवाले आकाशकी स्थिति ही नहीं होती रहती है । उस स्थिति के समय में विनाश और उत्पादका भी भला दर्शन हो रहा । बात यह है कि आकाशको एक माननेपर जीव तत्त्व भी एक ही मानना अनिवार्य पडेगा । यदि जीवतत्वको अनेक मानोगे तो आकाश तत्त्व भी अनेक मानने पडेंगे । न्यायमार्ग में किसीका पक्षपात नहीं चलता है । I सति बंधे न मोक्षः सति वा मोक्षे न बंधः स्यादेकत्रात्मनि विरोधादिति चेन्न, आकाशेपि सति घटवत्वे घटांतरमोक्षाभावप्रसंगात् । सति वा घटविश्लेषे घटांतरविश्लेषप्रसंगात् । प्रदेशभेदोपचारान्न तत्प्रसंग इति चेत्, तत एवात्मनि न तत्प्रसंग ः । कथमेक एवात्मा बद्धो मुक्तश्च विरोधादिति चेत्, कथमेकमाकाशं घटादिना बद्धं मुक्तं च युगपदिति समानमेतच्चोद्यम् । नभसः प्रदेशभेदोपगमे जीवस्याप्येकस्य प्रदेशभेदोस्त्विति कुतो जीवतत्त्वप्रभेदव्यवस्था । ततस्तामिच्छता क्रियावंतो जीवाश्चलनतो असर्वगता एवाभ्युपगंतव्या इति त्रससिद्धिः । 1 । आचार्य कहते हैं कि यदि पूर्वपक्षी वैशेषिक यो कहें कि एक ही आत्मा के स्वीकार करनेपर तो एक आत्माका बन्ध हो जाने पर मोक्ष न हो सकेगी अथवा मोक्ष हो जानेपर बन्ध नहीं हो सकेगा । क्योंकि एक आत्मा विरुद्ध माने गये बन्ध या मोक्ष दोनों के होने का विरोध है । किन्तु जगत् में बहुतसी आत्माओं के बन्ध हो रहा है और अनेक आत्माओंको मुक्ति प्राप्त हो रही है यह उपाय तो नहीं रचना । क्योंकि यों तो एक आकाशके माननेपर भी होनेपर अन्य घटोंसे या पट आदिसे मोक्ष होनेके अभावका प्रसंग होवेगा अथवा प्रकरणप्राप्त घटकी आकाश के साथ विश्लेष हो जानेपर अन्य घटों के साथ भी विश्लेषण हो जानेका प्रसंग बन बैठेगा 1 अर्थात् — जब आकाश एक ही है तो घटके साथ संयोग हो जानेपर सभी घटोंके साथ संयोग ही आकाशको घटसहितपना 16
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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