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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः mommonominnar यहां किन्हीं विद्वानोंकी ऐसी चेष्टा हो रही है कि त्रस जीव ही संसारी जीव हैं, संसारवर्ती त्रसोंके ही समनस्क और अमनस्क ये दो भेद हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति, इन शरीरोंको धारनेवाला कोई जीव संसारमें नहीं है। इस कुचेष्टाका निराकरण करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज स्पष्टरूपसे अग्रिम सूत्रको कहते हैं । संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ संसारी जीव दूसरे ढंगसे त्रस और स्थावर इन दो बड़े भेदोंको धार रहे हैं । अर्थात्समनस्क और अमनस्क इन दो भेदोंमें सभी संसारी जीव गर्भित हो जाते हैं, उसी प्रकार त्रस और स्थावर दो भेदोंमें भी संसारी जीव अन्तःप्रविष्ट हो जाते हैं । लोक या शास्त्रमें जिस प्रकार संसारी जीवोंके भेद प्रसिद्ध हैं उस ढंगसे यहां भेदव्यवस्था कर दी गयी है । त्रसनामकर्मोदयापादितवृत्तयस्त्रसाः प्रत्येतव्याः न पुनस्त्रस्यंतीति त्रसाः पवनादीनां त्रसत्वप्रसंगात् गर्भादिष्वत्रसत्वानुषंगाच, स्थावरनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः स्थावराः। स्थानशीलाः स्थावरा इति चेन्न, वाय्वादीनामस्थावरत्वप्रसंगात् । इष्टमेवेति चेन्न, समयार्थानवबोधात् । न हि वाय्वादयस्त्रसा इति समयार्थः । कितने ही मोटी बुद्धिवाले चलने फिरनेवाले जीवोंको त्रस और एक स्थानपर ठहरनेवाले जीवोंको स्थावर कह देते हैं किन्तु यह मन्तव्य सिद्धान्तविरुद्ध है । जिन जीवोंकी आत्मसम्बन्धी या शरीरसम्बन्धी प्रवृत्तियां त्रस नामक नामकर्मके उदयसे सम्पादित की गयी हैं, वे जीव त्रस समझ लेने चाहिये । फिर जो उद्वेगको प्राप्त होते रहते हैं भागते दौडते हैं इस निरुक्ति द्वारा प्राप्त हुये अर्थ करके त्रस नहीं विश्वस्त कर लेने चाहिये । यो यौगिक अर्थका आदर किया जायगा तो चलते, फिरते, पवनको या बहते हुये जल अथवा रेलगाडी, मोटर कार, आदि पदार्थों को भी त्रसपनेका प्रसंग होगा । यह अतिव्याप्ति या आपत्ति हुई और साथसें अव्याप्ति या अनुपपत्ति भी है कि गर्भ अवस्था, मूर्छित अवस्था , अण्डदशा आदिमें त्रस जीवोंको भी त्रसरहितपनेका प्रसंग हो जायगा । त्रसकर्मका उदय होनेपर मनुष्य या तिथंचकी आत्मामें रक्त, मांस, हड्डी, चर्म, मज्जा आदि धातुओंको उत्पन्न करनेके लिये व्यक्त, अव्यक्त, पुरुषार्थ हो जाते हैं । देव नारकियोंके धातुरहित वैक्रियिक शरीरके सम्पादक प्रयत्न हो जाते हैं। किन्तु स्थावर जीवोमें तादृश पुरुषार्थ नहीं हो पाते हैं। स्थावरोंका शरीर रक्त, मांस, हड्डीमय नहीं है। तथा नाम कर्मकी विशेष हो रही जीवमें स्वकीय अनुभव देनेवाली स्थावर प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुये विशेष जीव तो स्थावर कहे जाते हैं । किन्तु तिष्ठन्ति इति स्थावराः इस प्रकार शब्दकी निरुक्ति कर ठहरना स्वभावको रखनेवाले जीव स्थावर हैं यह स्थावर जीवका लक्षण नहीं है । क्योंकि इधर उधर तिरछा बहनेवाले
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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