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________________ ११४ तत्त्वार्थश्लोक वार्तिके धरते हैं, उपदेश सुनते हैं, इस प्रकार विचारपूर्वक ज्ञान और उसके अन्य भी कार्य अन्तरंग इन्द्रियको माने विना अन्य प्रकारोंसे नहीं हो पाते हैं । अतः अतीन्द्रिय मनकी उसके कार्य द्वारा सिद्धि कर दी जाती है । तथा वृक्ष, चींटी, मक्खी, आदि कितने ही जीव ( पक्ष ) फिर अमनस्क हैं ( साध्य ) शिक्षा आदिको नहीं ग्रहण करनेवाले साधारण ज्ञान होना स्वरूप कार्य की सिद्धि अन्यथा यानी अमनस्क हुये बिना दूसरे ढंगों करके नहीं बन सकती है। मक्खी या चींटीको कोई शिक्षा दी जाय उसको वह नहीं समझ पाती है। कल्पित नाम रखनेपर तदनुसार आती जाती नहीं है । इससे प्रतीत होता है कि बर्र आदि जीवोंके विचारकपन नहीं है । इस प्रकार इतनेसे इन दो हेतुओं करके दो प्रकारके संसारी जीव सिद्ध हो जाते हैं । इष्टविशेषतश्च । इष्टं हि प्रवचनं तस्य विशेषः समनस्केतरजीवप्रवचनं तस्य विशेषः समनस्केतरजीवप्रकाश वाक्य, संति संज्ञिनो जीवाः संत्यसंज्ञिन इति । ततश्च ते व्यवतिष्ठते सर्वथा बाधकाभावात् । तथा इष्टविशेषसे भी दो प्रकार के जीवों की सिद्ध हो जाती है । यहां प्रकरण में इष्टपदसे प्रकृष्ट वचन यानी आगम लिया जाता है । सर्वज्ञ की आम्नायसे चले आ रहे उस आगमका विशेष हो रहा समनस्क और अमनस्क जीवों को कहनेवाला शास्त्र हैं । उस शास्त्रका भी विशेष हो रहा समनस्क और उससे न्यारे अमनस्क जीवोंको प्रकाश रहा एक वाक्य है । जो कि इस प्रकार है कि संसार में संज्ञी जीव हैं और असंज्ञी जीव भी हैं। जयववला सिद्धांत आदि प्राचीन ग्रन्थोंमें अनेक वाक्य हैं । गोम्मटसारमें भी लिखा है " सिक्खाकिरिचदेसाला वग्गाही मणोवलंत्रेण, जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीओ असण्णी दु ॥ १ ॥ मीमंसदि जो पुत्र कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च । सिक्खदि णामेणेदिय मोमो यो ॥ २ ॥ द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि समणा अमणा या पंचेंदिय णिम्मणा परे सवे " । अतः तिस आगमनमागते भी वे संज्ञी, असंज्ञी जीव व्यवस्थित हो रहे हैं। सभी प्रकारों से कोई बाधक प्रमाण नहीं हैं । जगत् में अनन्तानन्त पदार्थ हैं । तिनमें बहुभाग हम लोगों के स्थूल ज्ञानसे छिपे पडे हुये हैं। उनकी सिद्धिका सरल उपाय बाधक प्रमाणोंका असम्भव ही ठीक पडता है । किसको इतना अवकाश या सूक्ष्म योग्यता प्राप्त है जो कि सबको विशेष विशेष रूप से देखता फिरे । संज्ञी, असंज्ञी, जीवोंकी सिद्धिका बाधक कोई प्रमाण नहीं है । " असम्भवद्वावकप्रमाणत्व ” हेतुसे चाहे किसी भी पदार्थ की सिद्धि हो जाती है । धनिकों के रुपयोंको सभी मनुष्य नहीं गिन पाते हैं । फिर भी उनको सेठजी कहते हैं । ठोस विद्वान्की गम्भीर पन्डिताईको कौन टटोलता फिरता है, तपस्त्रिओंकी साधनाओंको कौन षरखै, कुल, जातिका सूक्ष्म गवत्रेण कौन कर पाता है, केवल बाधाओंके असद्भावसे उनका अस्तित्व सिद्ध हो जाता I 1 असा एव संसारिणः समनस्कामनस्का इति केषांचिदाकूतं, तदपसारणायाह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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