________________
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
वायु जीव, नीचे प्रदेशकी ओर ढुलक जानेवाले जल जीव, ज्वालारूप अग्नि अवस्थामें ऊर्च ज्वलन करनेवाले अग्निकायिक इत्यादि जीवोंको स्थावर रहितपनेका प्रसंग हो जावेगा। यदि कोई स्थूल बुद्धिवाला ग्रामीण पंडित यों कह देवे कि इस प्रकार तो हमको इष्ट ही है । अर्थात्-वायु जलके जीव भले ही स्थावर न होकर त्रस हो जाओ, पृथिवी कायिक वनस्पति कायिक जीव स्थावर बने रहेंगे । श्वेताम्बर भी तेज और वायुको त्रस मान बैठे हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि आम्नायसे चले आरहे सर्वज्ञप्रतिपादित शास्त्रोंके अर्थको तुम नहीं समझते हो। व्याकरणके चक्रमें पडकर व्याघ्र, कुशल, सम्यग्दर्शन आदि शद्बोंके समान स्थावर २.ब्दकी भी निरुक्ति कर देनेसे ही पारिभाषिक अर्थ प्राप्त नहीं हो जाता है । वायु, जल, आदिके जीव त्रस हैं, ऐसा ऋषिप्रोक्त शास्त्रोंका अर्थ नहीं है । द्विइन्द्रिय जीवोंसे लेकर चौदहवें गुणस्थानतकके जीव त्रस माने गये हैं । अतः त्रस और स्थावर कर्मके उदयसे ही त्रस स्थावर जीवोंको लक्षण युक्त करना ठीक पडेगा, चलने और नहीं चलनेकी अपेक्षा त्रसस्थावरपना नहीं है । यौगिक अर्थसे रूढि अर्थ और ततोपि पारिभाषिक अर्थ बलवान् होता है।
त्रसाश्च स्थावराश्च त्रसस्थावराः । त्रसग्रहणमादावल्पाक्षरत्वादभ्यर्हितत्वाच्च । संसारिण एवं त्रसस्थावरा इत्यवधारणान्मुक्तानां तद्भावव्युदासः, त्रसस्थावरा एव संसारिण इत्यवधारणाद्विकल्पांतरनिवृत्तिः।
त्रस और स्थावर अथवा स्थावर और त्रस भी चाहे कैसा भी विग्रह करो, दोनों पदोंका समास हो जानेपर " त्रसस्थावराः " पद बन जायगा । अल्प अक्षर होनेके कारण और पूज्यपना होनेसे शब्दशक्तिद्वारा उसका ग्रहण आदिमें आजाता है । संसारी इस उद्देश्य दलके साथ अन्ययोग व्यवच्छेदक एवकार लगा देनेसे संसारीजीव ही बस और स्थावर दो भेदवाले हैं । अतः पूर्वोक्त दूसरे मुक्त जीवोंके त्रसपन और स्थावरपनका व्यवच्छेद हो जाता है तथा संसारी जीव तो त्रस स्थावर ही हैं। इस प्रकार विधेय दलमें अयोग व्यवच्छेदक एवकार द्वारा अवधारण कर देनेसे अन्य विकल्पों यानी भेदोंकी निवृत्ति हो जाती है । अर्थात्-सभी संसारी जीव त्रस और स्थावर दो भेदोंमें ही गर्भित हो जाते हैं । अन्य विकल्पोंकी आकांक्षा नहीं रहती है।
कुत पुनरेवं प्रकाराः संसारिणो व्यवतिष्ठत इत्याह ।
किसी शिष्यकी जिज्ञासा है कि यों त्रस और स्थावर यों दो प्रकारोंको धार रहे संसारी जीव भला किस प्रमाणसे व्यवास्थत हो रहे हैं ? बताओ, ऐसी विनीत प्रतिपाद्यकी प्रतिपित्सा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
त्रसास्ते स्थावराश्चापि तदन्यतरनिन्हवे । . जीवतत्त्वप्रभेदानां व्यवस्थानाप्रसिद्धितः॥ १ ॥