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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
मनःपर्यय ज्ञानका लक्ष्य जीवके अवयव हो रहे उपशम सम्यक्त्वके साथ विरोध है । अतः कथंचित् भेद, अभेदको रखते हुये जीव और उपयोगका लक्ष्यलक्षणभाव सिद्ध कर दिया है।
एवं सूत्रद्वयेनोक्तं लक्षणं लक्षयेनरं। कायाद्भेदेन संश्लेषमापन्नादपि तत्त्वतः॥२॥
इस प्रकार श्री उमास्वामी महाराजने “ उपयोगो लक्षणं " और " स द्विविधोष्टचतुर्भेदः " इन दो सूत्रों करके जीवका लक्षण कह दिया है। परस्परमें संसर्गको प्राप्त हो रहे भी शरीरसे वह लक्षण वास्तविक रूपसे जीवका भिन्नपने करके परिचय करा देवेगा । अर्थात् —पुद्गलतत्त्व और जीवतत्त्व दोनोंसे मिलकर बने हुये शरीरधारी जीवमें अनुभूत हो रहा उपयोग उस जीवको तात्त्विक रूपसे न्यारा न्यारा चिन्हा देगा । जैसे कि न्यारिया टांका मिले हुये सोनेको विशेष लक्षण द्वारा सुवर्णपने करके न्यारा परख लेता है।
यथा जलानलयोः संश्लेषमापनयोरप्युष्णोदकावस्थायां द्रवोष्णस्वभावलक्षणं भिन्नं भेदं साधयति तथा कायात्मनोः संश्लेषमापनयोरपि सूत्रद्वयोक्तं लक्षणं भेदं लक्षयेत्सर्वत्र लक्षणभेदस्यैव भेदव्यवस्थाहेतुत्वात् । तदभावे प्रतिभासभेदादेरभेदकत्वात् ।
जिस प्रकार कि अग्नि द्वारा उष्ण किये गये तप्तजलकी अवस्थामें एकम एक संसर्गको प्राप्त हो रहे जल और अग्निका बहने योग्य पतलापन स्वभाव और उष्णस्वभाव ये दो भिन्न भिन्न लक्षण उन जल अग्नियोंके भेदको साध देते हैं, तिसी प्रकार एकत्वबुद्धिजनक सम्बन्धरूप बन्धको प्राप्त हो रहे भी काय और आत्माका पूर्वोक्त दो सूत्रोंमें कहा गया लक्षण, उनके भेदको मान प्रेरणापूर्वक चिन्हा देवेगा । सभी दार्शनिकोंके यहां लक्षण द्वारा किये गये भेदको ही भेदकी व्यवस्था करा देनेका हेतुपना प्राप्त है। यदि किसीका वह लक्षण भिन्न भिन्न नहीं है तो ऐसी दशामें न्यारा न्यारा प्रतिभास होना या न्यारे देशमें रहना आदि तो लक्ष्य पदार्थोका भेद करानेवाले नहीं हो सकते हैं । बात यह है कि जैन सिद्धान्त अनुसार उष्ण जलमें कोई अग्नितत्त्व और जलतत्त्व दो न्यारे न्यारे मिल रहे पदार्थ नहीं हैं। पौद्गलिक अग्निका निमित्त मिलनेपर जल ही उष्ण स्पर्शवाला बन जाता है। निमित्तके हट जानेपर कुछ देर पश्चात् अपेक्षाकृत शीतल हो जाता है । किन्तु चार्वाक या वैशेषिकके सिद्धान्त अनुसार आचार्य महाराजने उनके सन्मुख उन्हींका दृष्टान्त धर दिया है। हां, दूधमें घुले हुये पानीके समान अग्निके कण तो जलमें घुल नहीं सकते हैं क्योंकि जल और ईंधनकी अग्नि दोनोंमें वध्य घातक विरोध है । देखो समुद्रकी अग्नि बडवानलकी जाति न्यारी है । वह भी योग्य परिमाणमें जलको जलाती रहती है । और जल भी उसको बुझाता रहता है । पेटकी आग उदराग्निकी भी ऐसी अवस्था है। पदार्थोके नैमितिक परिणभनों की विचित्र पद्वति है । बहुभाग व्यक्तियों को उचित पानी पी लेनेपर ही उदराग्निद्वारा अन्नका अच्छा परिपाक होता है । दाल भी पानी डालनेपर सीझती है, सूखी दाल नहीं