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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके जाते हैं । और नौ क्षायिक भावोंमेंसे केवलज्ञान और फेवलदर्शन ले लिये गये तो पांच लब्धियां, सम्यक्त्व, चारित्र ये सात क्षायिक भाव शेष रह जाते हैं। तथा पुनः दो भेदवाले औपशमिक, इक्कीस भेदवाले औदयिक, और तीन या अनेक विकल्पोंको धार रहे पारिणामिकभाव ये तीनों भाव समझ लेने चाहिये । शेष शब्द और भावत्रय शब्दों का समाहार द्वन्द्वकर जिस जीवके क्षयोपशमिक और क्षायिकभावोंमेंसे शेष बच रहे पन्द्रहभाव तथा औपशमिक, औदयिक, और पारिणामिक ये तीनों भाव तदात्मक होकर स्वभाव हो रहे हैं, वह शेष भावत्रयात्मा है, उसका भाव अर्थमें त्व प्रत्यय करने पर शेष भावत्रयात्मकपना अर्थ हो जाता है । वे शेष पन्द्रहभाव और औपशमिक आदिके छब्बीसभाव यों इकतालीस भावों के साथ तदात्मक हो रहे उस जीवको इस उपयोग लक्षणका लक्ष्यपना सिद्ध है । भिन्न भिन्न समझा दिये गये बारह उपयोग व्यक्तियोंमें प्राप्त हो रहे सामन्य धर्मकरके उपयोगको लक्षणपना बन रहा है । यह वार्तिकका अर्थ है । भावार्थ-कारिकामें कहे गये शेष शब्दका भावत्रयके साथ कर्मधारय समास नहीं करना चाहिये । किन्तु द्वन्द्व समास कीजियेगा, यह श्रीविद्यानन्दस्वामीका स्वोपज्ञ विवरण है । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, यह लक्ष्यलक्षणभाव एक ढंगका है, तथा अग्नि उष्ण है, सींग सासनावाली गौ होती है, यह लक्ष्यलक्षणभाव दूसरे ढंगका है । यहां अग्निका उष्णपना लक्षण करनेपर अग्निके शेष गुण या स्वभाव लक्ष्यभूत माने जाते हैं । सींग और सासना ( गलकंबल ) को लक्षण मान लेनेपर शेष हाथ, पैर, पेट मस्तक पीठ, आदि अवयवोंको धार रही गाय लक्ष्य हो जाती है । इसी प्रकार त्रेपन भावोंसे तन्मय होकर सद्भूत हो रहे जीव पदार्थके तदात्मक बारह भाव तो लक्षण हैं । और इकतालीस भावों का तदात्मक पिण्ड हो रहा जीव पदार्थ लक्ष्य है । एक बात यह भी ग्रन्थकार कह रहे हैं कि सामान्यरूपसे बारह उपयोगको हमने जीवका लक्षण कहा है, जिस जीवके जितने उपयोग सम्भव होय वैसा लक्षण घटित कर लेना । वैसे तो छद्मस्थ जीवोंके एक समयमें एक ही उपयोग सम्भवता है । हां, केवलज्ञानीके एक साथ दो उपयोग सध जाते हैं। यह भी युगपत्पना ज्ञानावरण दर्शनावरणोंका क्षय हो जानेसे कह दिया जाता है। वस्तुतः सामान्य विशेषात्मक सम्पूर्ण पदार्थीको जान रहे केवल ज्ञानके चमकते रहनेपर महासत्ताका आलोचन करनेवाला केवलदर्शन नगण्य है । एक गुणकी एक समयमें एक ही पर्याय होनेका नियम सर्वत्र सर्वदा सबके लिये लागू है, केवलज्ञानी जीवका चेतना गुण भी उसी नियमके अनुसार परिणमेगा । तथा इकतालीस भावोंके पिण्डस्वरूप जीवको लक्ष्यपना भी सामान्यरूपसे कहा गया है । विशेष रूप से तो इकतालीस भावोंमें जितना भी जिस जीवके सम्भवने योग्य हैं, उतने भावोंके समुदायात्मक जीवको लक्ष्य बनाना चाहिये । जैसे बारहों उपयोगोंका एक जीवमें एकदा सद्भाव पाया जाना असम्भव है, उसी प्रकार इकतालीसों भावोंका एकदा पिण्ड बन जाना भी असम्भव है । क्षायोपशमिक ज्ञानका क्षायिक ज्ञानके साथ जैसा विरोध है, वैसे ही औपशमिक सम्यक्त्वका क्षायिक सम्यक्त्वके साथ या क्षायोपशमिक चारित्रका क्षायिक लब्धियोंके साथ विरोध है । उपयोगमें गिनाये गये
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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