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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वह उपयोग आठ और चार प्रभेदोंके क्रमसे धार रहा दो प्रकार है, यों श्री उमास्वामी आचार्य करके स्वयं कण्ठोक्त कथन कर देनेसे यह निर्णीत हुआ समझो कि शेष बचे तीनों भाव स्वरूप जीवको इस उपयोगका लक्ष्यपना सिद्ध हो जाता है । क्षायिक और क्षायोपशमिकोंके शेष पन्द्रह और तीनोंके अन्य छब्बीस यों इकतालीसका पिण्ड हो रहा जीव लक्ष्य है । अर्थात्-दर्शनोपयोग
और ज्ञानोपयोगके साथ जीवका तदात्मक सम्बन्ध मान लेने पर प्रश्न उठ सकता है कि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके अतिरिक्त आत्माका डील क्या बच रहता है, जिसको कि उपयोग नामक लक्षणका लक्ष्य बनाया जाय ? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि अग्निका लक्षण उष्णता करनेपर शेष रहे रूप, तेजस्विता, दाहकत्व, पाचकत्व, आदि गुणोंका पिण्ड हो रहा अग्नि लक्ष्य हो जाता है। शाखाके बोझसे वृक्ष टूट पडा है, देवदत्त दो पैरोंसे चलता है, इन्द्रदत्त हाथों करो मुखमें खाता है, जिनदत्तको पण्डिताई शोभती है । यहां उन गुणों या अवयवोंसे शेष बचा हुआ पिण्ड जैसे उद्देश्य या लक्ष्य हो जाता है । उसी प्रकार कुछ क्षायोपशमिक और कुछ क्षायिक भावोंसे शेष बच रहे औपशमिक औदयिक और पारणामिक भावोंसे तदात्मक हो रहे जीवको लक्ष्य समझ लिया जाता है ।
जीवस्योपयोगसामान्यमिह लक्षणं निधीयते इति शेषः, स विविध इत्यादिसूत्रेण तद्विशेषकथनात् । अष्टाभ्यो ज्ञानव्यक्तिभ्यश्चतसृभ्यो दर्शनव्यक्तिभ्यश्चान्ये शेषा अष्टौ क्षायोपशमिकभेदाः सप्त च क्षायिकभेदाः परिगृह्यते । भावत्रयं पुनरौपशमिकौदयिकपारिणामिकविकल्प प्रत्येयं । शेषाश्च भावत्रयं च शेषभावत्रयं तदात्मा स्वभावो यस्य जीवस्य स शेषभावत्रयात्मा तस्य भावः शेषभावत्रयात्मत्वं तस्यैतल्लक्ष्यत्वसिद्धेः प्रतिपादितोपयोगव्यक्तिगतसामान्येन लक्षणत्वोपपत्तेरित्यर्थः।
उक्त कारिकामें “ लक्ष्यत्व सिद्धितः, ऐसा हेतुपरक वाक्य होनेसे जीवका उपयोग सामान्य यहां लक्षण निश्चित हो रहा है । इस प्रकार प्रतिज्ञा वाक्य शेष रह गया है । अतः प्रतिज्ञावाक्य और हेतुको मिलाकर वाक्यार्थ कर लेना चाहिये । “स द्विविधः ” इत्यादि सूत्र करके उस उपयोगके विशेषोंका कथन हो जानेसे जान लिया जाता है कि इससे पूर्व सूत्रमें किया गया जीवका लक्षण उपयोग सामान्य है । वार्तिकके पूर्वार्द्धका विवरण हो चुका । उत्तरार्द्धकी व्याख्या इस प्रकार है कि आठ संख्यावाली ज्ञान व्यक्तियोंसे और चारदर्शन व्यक्तियोंसे भिन्न शेष बच रहे क्षायोपशमिकके आठ भेद और क्षायिकभावके सात भेद पकडकर ग्रहण कर लिये जाते हैं । अर्थात्-बारह प्रकारके उपयोगमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, कुमति, कुश्रुत, विभंग, ये सात ज्ञान और चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन थे तीन दर्शन इस प्रकार दश भेद तो क्षायोपशमिक भावोंके हैं और केवलज्ञान, कोवलदर्शन ये दो उपयोग क्षायिक भावोंमें गिनाये गये हैं । सम्पूर्ण अठारह क्षायोपशमिक भावों से पूर्वोक्त दश भावोंका उपयोगमें परिग्रह कर लेनेसे शेष पांच लब्धियां, सम्यक्त्व चारित्र संयमासंयम ये आठ क्षायोपशमिकभाव 'बचे रह
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