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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिक सूत्रके अर्थको श्री विद्यानन्द स्वामी यों कहते हैं कि वह उपयोग दो प्रकारवाला है । सबसे प्रथम तो आकारसहित होरहा ज्ञानोपयोग है । विशेष अंशोंस सहित हो रहे अर्थको विषय करनेवाला होनेसे ज्ञानोपयोग साकार कहा जाता है। यहां आकारका अर्थ प्रतिबिंब पडना नहीं है । किन्तु ज्ञेय अर्थकी विकल्पना करना है । " ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाङ्किताः । सामान्याद्वा विशेषाद्वा सर्वे नाकारमातृकाः । आकारोर्थविकल्पस्स्यादर्थः स्वपरगोचरः । सोपयोगी विकल्पो वा ज्ञानस्यैतद्विलक्षणम् ” यत्सामान्यमनाकारं साकारं यद्विशेषभाक् ” इत्यादि पंचाध्यायीके वाक्योंसे भी ज्ञानमें सविकल्पकपना ही आकार निर्णीत किया गया है। ज्ञानके सिवाय अन्य गुणोंकी केवल स्वांश में स्वसत्ता मात्र अनुभूति होती रहती है। ज्ञान ही स्व, परका विशेष रूपकरके उल्लेख करता है । अतः ज्ञानोपयोग साकार है तथा केवल महासत्ता सामान्यको विषय करनेवाला होने से दर्शनोपयोग निराकार या निर्विकल्पक माना जाता है । उन दो भेदवाले उपयोगों में आदिके उपात्त ज्ञानोपयोग के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमति, कुश्रुत, विभंग, इस प्रकार आठ प्रभेद हैं । तथा ज्ञानोपयोगसे दूसरा भिन्न दर्शनोपयोग तो चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन, इस प्रकार चार प्रभेदों को धार रहा है । यद्यपि मूलसूत्रमें पहिले ज्ञान शब्द और पीछे दर्शन शब्दका सूत्रकारने कण्ठोक्त प्रयोग नहीं किया है, तो भी विशेषसंख्या आठका वाचक अष्ट शब्दका सूत्रमें उपादान करनेसे ज्ञानोपयोग का प्रथम ग्रहण करना ही लक्षित हो जाता है । ज्ञानके ही आठ भेद हैं। आलोचन करना स्वरूप दर्शनसे अधिक पूज्य होनेके कारण सूत्रमें ज्ञान पहिले कहा गया है, ऐसा इस सूत्र के वचनसे ही निर्णीत हो रहा है । अन्यथा आठ और चार संख्याका द्वन्द्वसमास होनेपर " संख्याया अल्पीयस्याः इस सूत्र अनुसार चतुर् शब्दका पूर्वमें निपात हो जाता । जब कि अष्टका प्रयोग पहिले दीख रहा है, तब तो पूज्य होनेसे ज्ञान ही पहिले कहा गया है, यह निर्णीत है । 1 " ९६ यथोक्तोपयोगव्यक्तिव्यापि सामान्यमुपयोगोऽस्य लक्षणमिति दर्शयति । यद्यपि सम्यग्ज्ञान पांच ही हैं, फिर भी उपयोगका प्रकरण होनेसे तीन विपरीतज्ञान भी पकड लिये जाते हैं । सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव सदा ज्ञान करते समय आठ उपयोगोमेंसे किसी एक उपयोग उपयुक्त अवश्य होगा । इस प्रकार सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार सूत्रमें ठीक कहे जा चुके आठ उपयोग व्यक्तियोंमें व्याप रहा सामान्य उपयोग तो इस जीवका लक्षण है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा शिष्यों के सन्मुख दिखलाते हैं । सद्विविधोष्टचतुर्भेद इत्युक्तेः सूरिणा स्वयम् । शेषभावत्रयात्मत्वस्यैतल्लक्ष्यत्वसिद्धितः ॥ १ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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