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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः है कि तुम्हारे मन्तव्य अनुसार जीवसे सर्वथा भिन्न हो रहे उपयोगके साथ जीवका हो रहा सम्बन्ध यदि जीवसे भिन्न है तब तो वह सर्वथा भिन्न हो रहे पदार्थ के समान वह सम्बन्ध भी लक्षण नहीं हो सकता है। अन्यथा यानी भिन्न हो रहे भी सम्बन्धको यदि लक्षण मान लिया जाय, तब तो विचारे उपयोगको भी लक्षणपनकी सिद्धि हो जायगी, कोई अन्तर नहीं है । अर्थात्-भेदवादी. वैशेषिकोंके यहां दण्डद्रव्यका पुरुषके साथ हो रहा संयोग तो गुण पदार्थ माना गया है और संयोगका दण्डमें न्यारा हो रहा समवायसम्बन्ध तो छठवां स्वतंत्र पदार्थ माना गया है। उसी प्रकार उपयोगका समवाय सम्बन्ध भी तो जीवसे अर्थान्तरभूत ही पडेगा। अतः जिस भेद हो जानके डरसे तुम वैशेषिकोंने उपयोगको छोडकर उपयोग सम्बन्धकी शरण ली थी, वह · भय तो तदवस्थ ही है । उपयोगके न्यारे समवाय सम्बन्धको जोडनेके लिये स्वरूप सम्बन्धकी और पुनः न्यारे स्वरूप सम्बन्धका योग करनेके लिये अन्य सम्बन्धकी आवश्यकता होती जाती है। फिर भी सर्वथा भिन्न हो रहे सम्बन्धके साथ भी उसका न्यारा सम्बन्ध लक्षण माना जायगा तब तो उस न्यारे सम्बन्धका भी मिलाप करनेके लिये अन्य सम्बन्धोंकी आकांक्षा बढ़ती चली जायेगी। यों भेदवादियोंके मतमें अनवस्था दोषका परिहार कैसे हो सकता है ? सो तुम्ही जानो। हां, यदि उपयोगको भी मानते हुये उपयोगके सम्बन्धको वैशेषिक अभिन्न मान लेते होते तब तो यह उनका कटाक्ष करना हमको और उनको दोनोंको लाभदायक होता । किन्तु वे तो सम्बन्ध और सम्बन्धियोंका सर्वथा भेद माननेकी सौगन्ध ले चुके हैं । अनवस्थाके निवारणार्थ यदि बहुत कुछ दूर भी दशवीं, पचासवीं, कोटिपर जाकर स्वसम्बन्ध के साथ कथंचित् अभेद हो जानेसे सम्बन्धको लक्षण अभीष्ट किया जायगा तब तो उपयोग ही आत्माका लक्षण अभीष्ट कर लिया जाओ। क्योंकि जैन सिद्धान्तमें उस उपयोगका अपने सम्बन्धी लक्ष्यभूत आत्मा के साथ कथंचित् तदात्मकपना युक्तियोंसे सिद्ध हो रहा है। अतः जीवका आत्मभूत हो रहा उपयोग समीचीन लक्षण है, कोई दोष नहीं है। तस्योपयोगस्य भेदप्रतिपादनार्थमाह । ____जीवके लक्षण उस उपयोगके भेदों की प्रतिपत्ति व रानेके लिये जिज्ञासु शिष्यके प्रति श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं । स द्विविधोष्टचतुर्भेदः ॥९॥ वह प्रसिद्ध हो रहा उपयोग दो प्रकारका है एक ज्ञानोपयोग, दूसरा दर्शनोपयोग, तिनमें पहिला ज्ञानोपयोग आठ भेदवाला है, और दूसरे दर्शनोपयोगके चार भेद हैं। स उपयोगो द्विविधस्तावत्, साकारो ज्ञानोपयोगः सविशेषार्थविषयत्वात, निराकारो दर्शनोपयोगः सामान्यविषयत्वात् । तत्राद्योऽष्टभेदश्चतुर्भदोन्य इति संख्याविशेषोपादानात्पूर्व ज्ञानमुक्तं अभ्यर्हितत्वाभिश्चीयते । एतत्सूत्रवचनादेव ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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