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________________ तत्त्वार्थश्लोक वार्तिके चार्वाकोंका स्वपक्ष अवधारणके लिये आचार्योंके ऊपर कटाक्ष है कि इस प्रकार विकल्प उठाने पर तो सभी प्रवादियों के यहां अपने अपने अभीष्ट तत्त्वोंकी सिद्धि हो जायगी सांख्योंकी मानी हुई प्रकृति, या नैयायिकों का ईश्वर, अथवा एकान्त, वैशेषिक का सातवां पदार्थ अभाव, अद्वैतवादियोंका ब्रह्मतत्त्व, आदि पदार्थोंकी भी सिद्धी बन बैठेगी । क्योंकि “ प्रधान है " " ईश्वर है " इत्याकारक ज्ञानको संशय या विपर्यय अथवा यथार्थ निर्णय मानने पर सभी विकल्पोंमें सिद्ध कर लिये आत्मतत्त्व के समान प्रधान आदिके अस्तित्वका भी साधन हो जाता है | प्रधानके ज्ञानको संशय होनेपर भी प्रधानका कहीं सद्भाव बन चुकता है । या विपर्यय माननेपर भी क्वचित् अस्तित्व मानना आवश्यक हो जाता है । यथार्थ निर्णय तो उनकी सिद्धीका सर्वमान्य प्रयत्न है । यदि जैन उन विकल्पों के अनुसार उस प्रधान आदि के ज्ञानको उन प्रधान, ईश्वर, आदिका साधन करनेवाला नहीं मानोगे तब तो " आत्मा है " इस ज्ञानको भी कैसे सर्व विकल्पोंमें आमाके अस्तित्वका साधकपना बन सकता है ? यों यहांतक कोई चार्वाक मतानुयायी कह रहा है । आचार्य कहते हैं कि उसका वह कहना प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि प्रधान, ईश्वर, आदिको हम जैन स्वीकार करते हैं । सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, स्वरूप प्रधान के साथ हमारा कोई विरोध नहीं है। हां, कापिलों के यहां उस प्रधानके मान लिये गये नित्यत्व, एकपन, बुद्धि, सुख, दुःख, आदि धर्मों का ही हम निराकरण करते हैं । लघुपना, प्रकाशपना, प्रेरकपना, सक्रियपना, भारीपन, प्रतिबन्धकपन, आदि स्वरूपोंसे तदात्मक हो रहे पुद्गल नामधारी प्रधानका खंडन हम थोडे ही करते हैं ? इसी प्रकार एक विशेष आत्मा ईश्वरको अथवा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुगत, अद्वैत, 1 अनुपम ) आत्मा, खुदा, हुसैन, ईसा, आदि विशेष व्यक्तियों को हम जैन स्वीकार करते हैं। हां केवल उन पौराणिक, अद्वैतवादी, यवन, आदि द्वारा माने गये उन ईश्वर आदि के जगत्कर्तापन, व्याप रूपन आदि धर्मो का निराकरण करते हैं । खुदा असत् द्रव्यों का उत्पाद नहीं कर सकता है ईश्वर असम्भव को सम्भव नहीं कर सकता है। वृक्षपर फल फूल के समान मनुष्य लगकर नहीं उपजते | उपादान कारण या निमित्त कारणों के बिना कोई भी कार्य कोरे अतिशय, माया या ईश्वरक्रीडामात्र नहीं उप सकते हैं । कोई भी आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकता है । ब्रह्मा, सुगत, सात्यकि ने अपने माता पिताओं के रजोवीर्य से उत्पन्न हुये हैं । तपश्चरण कर इन्होंने कार्यकारणभावका अतिक्रमण नहीं करते हुये अनेक ऋद्धियां, सिद्धियां प्राप्त की हैं । किन्तु ऐसी सृष्टि प्रक्रिया युक्तिओं से बाधित है कि विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुये कमल से ब्रह्माकी उत्पत्ति है और ब्रह्माने सबसे पहिले ( सर्गस्यादावपोऽजत् या सृष्टिः सृष्टुराद्या ) जलको बनाया पीछे पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, आदिका निर्माण किया? क्योंजी पृथिवी या आकाश के बिना ब्रह्माने कहां बैठकर जल बनाया ? समुद्र जल में विराजमान विष्णु भगवान् और कमल तो ब्रह्मा के जन्मसे प्रथम ही बन चुके होंगे इत्यादि अनेक प्रकारांसे दूषणगण आते हैं । इस कारण ईश्वर या ब्रह्माका जगत् कर्त्तापन आदिक 1 ९२
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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