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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः धर्म नहीं सध पाते हैं । तथा बौद्ध, सांख्य, मीमांसक, आदि द्वारा सर्वथा क्षणिकपन, नित्यपन, आदि एकान्तोंके भी सर्वथा एकान्तस्वरूप करके कभी कभी हम प्रसिद्धि मानते हैं । हां, केवल उन एकान्तोंका ही समीचीनपने करके श्रद्धान करनेके निराकरणकी अभिलाषा हमारे हो चुकी है । ऋजुसूत्रनयाभास, संग्रहाभास नयों करके सर्वथा क्षणिकपन और सर्वथा नित्यपन धर्म भ्रान्तज्ञानों द्वारा कदाचित् जाने जाते हैं । तभी तो उनका समीचीन रूपसे श्रद्धान करनेका निराकरण हमें अभीष्ट हो रहा है। बात यह है कि सभी प्रकारोंसे सभी स्थलोंपर सम्पूर्ण प्राणियोंको किसी भी विषयका संशय, विपर्यय होना नहीं बन सकता है | कहीं प्रसिद्ध हो रहे ही धर्मका अन्यत्र, अन्यदा, संशयज्ञान, विपर्यज्ञान, होना सम्भवता है। अतः आत्मतत्त्वका सद्भाव विना खटके मान लेना चाहिये । . नन्वेवमात्मनि सत्यपि नोपयोगस्य लक्षणत्वमनवस्थानादिति चेन्न, उपयोगसामान्यस्यावस्थापितत्वात् । परापरोपयोगविशेषस्य चानुपरमात्तस्य लक्षणत्वोपपत्तेः सर्वथोपरमे पुनरनुस्मरणाद्यभावप्रसक्तः। यहां आत्मद्रव्यको न माननेवाले चार्वाक या किसी बौद्धकी शंका है कि इस प्रकार युक्तिपूर्वक आत्माका सद्भाव सिद्ध हो जानेपर भी तो उपयोगको लक्षणपना नहीं बन पाता है। क्योंकि ज्ञानस्वरूप या दर्शनस्वरूप उपयोग क्षाणक है। क्षणस्थायी पदार्थ तो कालान्तरतक ठहरता नहीं है । प्रतिपादक वक्ताके बताये अनुसार शिष्य जबतक आत्माको पहिचाननेके लिये लपकेगा तबतक क्षणस्थायी उपयोग बिगड जायगा । दौडती हुई डांक गाडीमें तीर या बन्दूकका चिन्ह साधना अतीव कठिन है । देवदत्तके घरको कौआकी स्थितिसे चीन्हना नहीं बनेगा । कारण कि कौआके उड जानेपर वह लक्षणयुक्त घर ही एक प्रकारसे बिगड जाता है । अतः . अस्थायी पदार्थको किसीका लक्षण बनाना ठीक नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करना। क्योंकि सामान्यरूपसे कोई न कोई उपयोग आत्मामें सदा उपस्थित रहता साध दिया गया है । एक उपयोगके बिगड जानेपर भी उत्तरोत्तर सन्तानरूपसे होनेवाले अन्य विशेष उपयोगोंका कभी विराम नहीं हो पाता है । उपयोगकी परम्परा बनी रहती है । इस कारण उस उपयोगको लक्षणपना बन जाता है। यदि सभी प्रकारोंसे पर, अपर, सभी विशेष उपयोगोंका आत्मामें अभाव मान लोगे फिर तो पश्चात् स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, इष्ट, साधनताज्ञान, कृतिसाध्यता ज्ञान आदि होनेके अभावका प्रसंग हो जायगा । जसे कि विशेष व्यक्तियोंके मर जानेपर भारतवर्षमें यदि उत्तरोत्तर जन्म धार रहे अन्य विशेष मनुष्योंका भी अभाव मान लिया जायगा तो ऐसी दशामें भारतवर्ष सर्वथा मनुष्योंसे खाली हो जायगा । किन्तु ऐसा होना अलीक है । आत्माके भी उपयोगका सर्वथा अभाव मान लिया जाय तो जड आत्मा पीछेसे स्मरण नहीं कर सकेगा । स्मरण तो उपयोगअवस्थामें किसी विशेष उपयोगका ही होता है । अज्ञान जड पदार्थको अनुपयोग दशामें स्मरण नहीं हो पाता है । जो आत्मा पूर्व कालमें
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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