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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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उत्पन्न कर किसी भी गुणगरिष्ठको नष्ट होनेका अधिकार नहीं है । आद्य प्रकरणमें विस्तार के साथ आत्मा अनादि अनन्तपनकी सिद्धि की जा चुकी है । अलं विस्तरेण ।
किंच, अस्मदादेरात्मास्तीति प्रत्ययः संशयो विपर्ययो यथार्थनिश्चयो वा स्यात् : संशयश्चेत् सिद्धः प्रागात्मा अन्यथा तत्संशयायोगात् । कदाचिदप्रसिदस्थाणुपुरुषस्य प्रतिपचुस्तत्संशयायोगवत् । विपर्ययश्चेत्तथाप्यात्मसिद्धिः कदाचिदात्मनि विपर्ययस्य तन्निर्णयपूर्वकत्वात् । ततो यथार्थनिर्णय एवायमात्मसिद्धिः ।
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चार्वाकोंके प्रति आचार्य महाराज प्रश्न करते हैं कि क्योंजी, हम जैन या मीमांसक, नैयायिक आदिकों के यहां हो रहा " आत्मा इस प्रकारका ज्ञान क्या संशयज्ञान स्वरूप है ? या त्रिपर्ययज्ञान स्वरूप है ! अथवा क्या यथार्थ वस्तुका निर्णय समझा जाय ? बताओ। प्रथम पक्ष अनुसार आमा विद्यमान है, इस ज्ञानको यदि संशय माना जायगा तब तो चार्वाकों के यहां पहिले आत्मा तत्व सिद्ध चुका कहना चाहिये । अन्यथा यानी आत्माका कहीं न कहीं अस्तित्व माने विना अन्यत्र उसके संशय होनेका अयोग है । जैसे कि तलघर में उपजकर पले हुये जिस प्रत्तिपत्ताको आजतक कभी ठूंठ और पुरुष की यदि प्रसिद्धि नहीं हो सकी है, उस पुरुषको उन स्थाणु जौर पुरुषको विषय करनेवाले संशय ज्ञान होने का अयोग है । अर्थात् — जो जिसका संशय करता है वह उसका कहीं न कहीं निश्चय अवश्य कर चुका है । साधारण धर्मो का दर्शन और विशेष अंशोंकी स्मृति हो जानेपर संशय ज्ञानकी उत्पत्ति सबने मानी है । अवस्तुको विषय करनेवाला संशय नहीं होता है । तथा आत्मा इस ज्ञान को चार्वाक द्वितीय विकल्प अनुसार यदि विपर्यय ज्ञान मानेंगे तिस प्रकार होनेपर भी आत्मतत्त्वकी सिद्धि हो जाती है । क्योंकि कभी कभी आत्मामें उसका विपर्यय ज्ञान तभी होगा, जब कि कहीं न कहीं पूर्वमें उस आत्माका निर्णय किया जा चुका होगा । सीपमें पुरुषको उपजती है जो कि कभी कहीं यथार्थ चांदीका सम्यग्ज्ञान कर चुका है। न्यारे आत्मतत्त्वकी सिद्धि हो जाती है । तिस कारणसे तृतीय विकल्प अनुसार यह ज्ञान यथार्थ निर्णय स्वरूपी है । यों बडी सुलभता से सभी विकल्पोंमें आत्मा हो जाती है ।
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रजतकी
भ्रान्ति उसी
इससे भी आत्मा है
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द्रव्यकी सिद्धि
नन्वेवं सर्वस्य स्वेष्टसिद्धिः स्यात् प्रधानादिप्रत्ययस्यापि सर्वविकल्पेषु प्रधानाद्यस्तित्वसाधनात् । तस्यैतदसाधनत्वे कथमात्मास्तीति प्रत्ययस्यात्मास्तित्वसाधनत्वमिति कश्चित् । तदसत् | प्रधानस्य सत्वरजस्तमोरूपस्याविरुद्धत्वात् तद्धर्मस्यैव नित्यैकत्वादेर्निराकरणात् । मीश्वरस्यात्मवशेवस्य ब्रह्मादेवाभिमतत्वान् तद्धर्मस्य जगत्कर्तृत्वादेरपाकरणात् सर्वथैकांतस्यापि सर्वयैकांतरूपतया कदाचित्प्रसिद्धेस्तस्य सम्यक्त्वेन श्रद्धानस्य निराचिकीर्षितत्वात् । सर्वथा सर्वस्य सर्वत्र संशयविपर्ययानुपपत्तेः ।